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वैचम-प्रध्याय
है कि वाक्य अर्थकी प्रतिपत्ति करते समय उन पदों की भावना ( धारणा नामक संस्कार ) को रखने वाले पुरुष के उस प्रतिपत्ति करने में मूल कारण तो पदों के अर्थ माने गये हैं, अतः पदार्थ-प्रतिपत्ति पूर्वक वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होजाना इष्ट कर लिया गया है ।
तेषामपि यदि पदांरार्थैरन्वितानामेवार्थानां पदैरभिधानात पदार्थप्रतिपर्वाक्याविवोधः स्यात्तदा देवदतपदादेवदतार्थस्य गामभ्याजेत्यादिपदवाक्य १ रमितस्याभिधानान तदुच्चारण वैयर्थ्यमेव वाक्यार्थावबोधसिद्धः।
वाक्य को कहकर वाक्यार्थ की भी परिभाषा कर रहे मोमांसकों के प्रति अब प्राचार्य महाराज कहते हैं कि उन मीमांसकों के यहां भी "देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन" इस वाक्य में यदि अन्य पदों के अर्थ के साथ अन्वय प्राप्त होरहे ही अर्थों का पदों करके कथन कर देने से पदार्थ प्रतिपत्ति से ही वाक्यार्थ ज्ञान हुआ माना जायेगा अर्थात्-देवदत्त पद को देवदन अर्थ तो गां, अभ्याज आदि पदों के गाय, घेर लाना, आदि अर्थों के साथ अन्वित होरहा है और गां आदि पदों के अर्थ तो पहिले पिछले पदों के अर्थों के साथ अन्वित होरहे हैं, ऐसा प्राभाकरों का अन्विताभिधानवाद का पक्ष है अशेष पूर्व पदों के अभिधेय प्रर्थों करके अन्वित होरहे अन्तिम पदार्थ की प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ ज्ञान होजाता है । तब तो अकेले देवदत्त पदसे ही “गामभ्याज शुक्लां" इत्यादि पद पूर्वक हुये वाक्यार्थ से अन्वित होरहे देवदत्त इस अर्थ का कथन होजायगा, अतः उन गां आदि शेष पदों का उच्चारण करना व्यर्थ ही पड़ेगा जब कि एक ही पद से पूरे वाक्य के अर्थ का च रों प्रोर से ज्ञान होजाना सिद्ध है "अर्के चेन्मधु विन्देत किमर्थ पर्वतं ब्रजेत्' अर्थात्-कर्ता,कर्म,क्रिया ये सब पद जब अन्वित ही होरहे हैं तो एक पद के उच्चारण से ही परे वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होजानी चाहिये, शेष पद व्यर्थ पडजायगे एक किसी अवयवमें कम्पादिया गया बांस सभी पंगोलियों में कम्प जाता है। एक बात यह भी है कि यों वाक्यों का अखण्ड अन्वय मानने पर प्रथम पद को ही जैसे पूरा वाक्यपना आजाता है उसी प्रकार जितने पद हैं उतने वाक्य बन बैठेंगे अथवा जितने पदों के अर्थ हैं उतने वाक्यों के अर्थ हो जायेंगे, अतः मीमांसकों को कथंचित् भेदाभेद या एकानेक स्वभाव की शरण लेना अनिवार्य होजाता है । अन्य पदोंके अर्थों से अन्वित होरहे ही अर्थोंका पदों करके कथन मानने वाले अन्विताभिधान-वादी प्रभाकर गुरु की मीमांमा ठीक नहीं है। .......
स्वयमविवक्षितपदार्थव्यवच्छेदार्थत्वान्न गामित्यादिपदोच्चारगावैयर्थ्यमिति चेत. किमेवं स्फोटवादिनः प्रथमपदेनानवयवस्य वाक्यस्फोटस्याभिव्यक्तावपि व्यक्त्यंतराहितव्यंजकपदव्यवच्छेदार्थस्य पदांतगेच्चारण मनर्थकमुच्यते १ यतम्तदेव पदैरभिव्यक्तं ततोऽन्यदेवार्थप्रतिपतिनिमित्रं न भवेत् । तथा सत्यवत्या सत्या वाक्याभिव्यक्तिप्रसंगः पदांतरैस्तस्याः पुनः प्रकाशनादितिचेत्, तवाप्यावत्या वाक्यार्थावबोधः स्यात् । प्रथमपदेनाभिहितस्यार्थस्य द्वितीयादिपदार्थाभिधेयरन्वितस्य द्वितीयादिपदैः पुनः पुनः प्रतिपादनात् ।।