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श्लोक-वातिक . रूपं पदान्तरापेक्षं, नापि पदसंघातवर्तिजा तिरूपं वा, न चैकानवयवशब्दरूपं क्रमरूपं वा नापि बुद्धिरूपमनुसहृतिरूपं वा, न चाद्यपदरूपमन्त्यपदरूपं वा, पदमात्रं वा पदांतगपेक्षं यथा व्यावर्ण्यतेऽन्यः 'आख्यानशब्दः सघातो जातिः संघातवर्तिनी । एकोऽनवयवः शब्दः क्रमो बुद्धयनुसंहती ।। पदमाद्यपदं चांत्यं पदसापेक्षमित्यपि । वाक्यं प्रतिमतिमिन्ना बहुधा न्यायवेदिना" मिति ॥ किं तर्हि ? पदान्येव पदार्थप्रतिपादनपूर्वक वाक्यार्थावबोधं विदधानानि वाक्यव्यपदेशं प्रतिपद्यन्ते तथा प्रतीतेरिति ।। - यहां कोई दूसरे अभिहितान्वयवादी प्राचीन नैयायिक और भाट्ट मीमांसक तथा प्रन्विताभिधानवादी प्राभाकर मीमांसक पण्डित यों बढ़ कर कह रहे हैं कि पदों से भिन्न होरहा एक स्वभाव वाला अथवा अनेक स्वभाव वाला प्राख्यात शब्द-स्वरूप वाक्य नहीं है जो कि जैनों ने पदान्तरों की अपेक्षा रखता हुआ और अन्य प्राख्यात शब्द-स्वरूप वाक्य की नहीं अपेक्षा रखता हुअा वर्ण समुदाय वाक्य मनवा दिया है । तथा वर्णों या पदों का संघात अथवा संघातत्तिनी जाति-स्वरूप भी वाक्य नहीं है जैसा कि जैनों ने कथंचित् भेदाभेदात्मक होरहे एकानेक स्वभाव वाले संघात अथवा संघातों में वर्त रही सदृश परिणाम लक्षण जाति को वाक्य ठहरा दिया था। तथा एक निरवयव शब्दस्वरूप अथवा वर्गों का क्रम-स्वरूप भी वाक्य को हम मीमांसक नहीं मानते हैं जो कि जैनों ने अनवस्था का भय दिखाते हुये अपने ऊपर आये हैये उपालम्भों को दूसरे के सिर टाल कर जात्यन्तर एकानेकाकार शब्द को वाक्य सधवा दिया था, वर्ण क्रम में भी व्युत्क्रम का डर दिखाकर कालकृत सांश वणक्रम को वाक्य सिद्ध कर दिया था । एवं बुद्धि-स्वरूप अथवा अनुसंहृति स्वरूप भी वाक्य नहीं बन पाता है जैसा कि जैनो ने अपने भाव-वाक्या में वयाकरणा का घसाट कर स्वानुकूल बना लिया था।
अन्य पदों की अपेक्षा रखने वाला आद्य पद और इतर पदोंकी अपेक्षासहित होरहा अन्तिम पद ये भी वाक्य नहीं हो सकते हैं या अन्य आगे पीछे के पदोंकी अपेक्षा रखरहा कोई भी मात्र मध्यवर्ती पद वाक्य नहीं हो सकता है जो कि एकानेकस्वभाव वाला नियत कर जैनों ने भी वाक्य मान लिया था। सच पूछो तो ये कोई वाक्य नहीं हैं,यह केवल सब फटाटोप है जिस प्रकार कि अन्य विद्वानोंने अपने सिद्धान्त में यों वाक्य का लक्षण बखाना है कि " भवति, पचति" ऐसा प्रख्यात शब्द वाक्य है, वर्णों का संघात वाक्य है, संघातों में वर्त रही जाति वाक्य है, निरंश एक शब्द वाक्य है, वर्णों का क्रम वाक्य है, बुद्धि वाक्य है, अनुसंहृति को वाक्य कहा जा सकता है, आद्य पद और पदों
की अपेक्षा रखने वाला अन्तिम पद ये भी वाक्य होसकते हैं यों न्याय को जानने वाले विद्वानों के यहां वाक्य के प्रति बहुत प्रकार भिन्न भिन्न मतियां होरही हैं । मीमांसक ही कहे जा रहे हैं ये कोई भी वाक्य नहीं सम्भवते हैं तो वाक्य क्या है ? इसका उत्तर यह है कि पद ही पूर्व में अपने पदार्थों का प्रतिपादन करते हुये वाक्यार्थ के ज्ञान को कर रहेसन्ते वाक्य इस नाम को प्राप्त कर लेते हैं लोक पौर शास्त्र में तिसी प्रकार प्रतीति होरही है यहाँ तक मीमांसक कह चुके हैं । मीमांसकों का अनुभव