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पंचम - अध्याय
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हम जैन कहेंगे कि तिस ही कारण से प्रतीत में कहा गया शब्द स्फोट भी मत होओ, भैंस के सन्मुख वीणा बजाने या श्लोक सुनाने के समान बहुत से शब्दों करके भी तो नियत अर्थों की प्रतीति नहीं हो पाती है । पुनः यदि वैयाकरण यों कहैं कि शब्द का तो अर्थ के साथ योग्यता - स्वरूप सम्बन्ध विद्य मान है, अतः वह शब्द स्फोट सम्भव जाता है, तब तो हम स्याद्वादी कहेंगे कि तिस कारण यानी गन्ध, हंस पक्ष्म आदि का भी अपने अर्थ के साथ योग्यता नामक सम्बन्ध होजाने के कारण दूसरे गन्धस्फोट आदि भी सम्भव जायंगे, प्राक्षेप और समाधान दोनों स्थलों पर समान हैं । गन्ध, रूप आदिकों का यदि उनके द्वारा ज्ञेय अर्थों के साथ योग्यता नामक सम्बन्ध नही माना जायेगा तो हजार संकेत करने पर भी उन गन्ध आदिकों से उन पुष्प, अग्नि, आम्रफल, कामिनी, प्रादिक अर्थों की प्रतिपति नहीं होसकेगी । जैसे कि अपरिचित भिन्न भाषात्रों के शब्दों से अथवा पशु पक्षियों के शब्दों से संकेत किये बिना शब्दों के उन वाच्यार्थों की प्रतीति नहीं हो पाती है ।
प्रतिपत्तुरगृहीत संकेतस्य शब्दस्य श्रवणात् किमयमाहेति विशिष्टार्थे संदेहेन प्रश्नदर्शनादर्थ सामा यप्रतिपत्तिसिद्धः शब्दसामान्यस्यार्थसामान्येन योग्यता संबध सिद्धिरिति चेत्, दिनमान्यस्य स्वदयर्थिनामान्येन योग्यतासिद्धिरस्तु स्वयमप्रतिपन्न संकेतस्थांगुल्यादिदर्शने केनचित्कृते विनय नाहति विशिष्टार्थ संशयेन प्रश्नोपलं नाद सामान्य त पतिसिद्धेरविशेषात् ।
वैयाकरण कहते हैं कि शब्द चाहे कैसा भी हाय बुद्धिमान पुरुष को सामान्य रूप से उसका अर्थ स्वल्प भास ही जाता । जिस शब्द के साथ संकेत ग्रहण नहीं भी किया गया है, उस शब्द का श्रवण करने से “ यह शब्द किस अर्थ को कह रहा है " यों विशिष्ट प्रर्थ में संदेह होजाने से प्रश्न उठ ना देखा जाता है । अतः अर्थापत्या सिद्ध होजाता है, कि प्रतिपत्ति करने वाले ज्ञाता को शब्द के सामान्य अर्थ की प्रतिपत्ति हो चुकी है, इस कारण सामान्य रूप से शब्दों की सामान्य रूप से अर्थों के साथ योग्यता नामक सम्बन्ध की सिद्धि हो रही समझ ली जाती है । सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशयः ( गौतम न्याय सूत्र ) अर्थात् -दूर से किसी गाम या नगर को देख कर यों विशेषों में संशय उपजता है कि यह कौनसा नगर है ? कानपुर है या प्रयाग है ? यों विशेषांशों में प्रश्न करना देखा जाने से प्रश्न - कर्त्ता पुरुष को सामान्य नगर का ज्ञान होचुका निर्णीत कर लिया जाता है । उसी प्रकार दूर से शब्द को या गायन को अथवा भूख या प्यास, काम-पीड़ा, अनुसार प्रयुक्त की गई गाय भैंस की रेंक को सुन कर भो विशेषांशों में संशय होरहा देखा जाता है । अतः अर्थापत्या जान लिया गया कि प्रतिपत्ता को उन शब्दों के सामान्य अर्थ की प्रतिपत्ति होचुकी है, किन्तु गंध आदि का ज्ञात कर तो किसी भी सामान्य या विशेष अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होपाती है, अतः गन्ध स्फोट छ।दि, का मानना प्रनावश्यक है, वैयाकरणों के यां कहने पर तो हम जैन कहते हैं । तिस ही कारण से यानो गन्ध आदि सामान्य को भी स्वकीय ज्ञातव्य ग्रंथ के साथ सामान्यरूप से