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श्लोक-पातिक
कि उनकी सूरतें मूरतें, वेगवती चेष्टायें, हाव, भाव, विभ्रम, विलास, आदि सभी क्रियायें तो पत्रों या पुस्तकों में नहीं मुद्रित होसकती हैं, अतः वैयाकरण विद्वानों को हस्त स्फोट मादि भी स्वीकार कर लेना चाहिये अन्यथा वे शब्द स्फोट से भी हाथ धो बैठेंगे।
न चैवं स्याद्वादमिद्धांतविरोध श्रोत्रमतिपूर्वस्येव घ्राणादितिपूर्वम्य fo श्रुतज्ञा स्येष्टत्वात् तत्परिणतात्मनस्तद्ध तोः स्फोट इति गंज्ञाकरणात
प्रापादन करने वाले जैनों के प्रति यदि वैयाकरगा यों आक्षेप करें कि जैसे जैनों ने ग्राख्यात शब्द वर्णक्रम. आदि को कुछ न्यून. अधिक करते हये जैन सिद्धान्त की प्रक्रिया अनुसार आदेश मान्य कर लिया था और बुद्धिस्वरूप शब्द स्फोट को आत्मा की ग्राहकत्व परिणति मान कर भाववाक्य कहते हुये स्याद्वाद सिद्धि इष्ट कर ली थी उसी प्रकार यदि कुछ जैनत्व का रंग चढ़ा कर गन्ध स्फोट आदि को भी इष्ट कर लिया जायगा ऐसी दशा में यदि स्याद्वादसिद्धान्त से 'वरोध पा गया तो तुम जैन फिर कहां शरण लोगे ? दूसरों से भी गये और अपनों से भी गये।
थकार कहते है कि इस प्रकार स्याद्वाद नीति अनुसार गन्ध स्फोट आदि माननेपर हमको सर्वज्ञोक्त स्याद्वाद सिद्धान्त के कोई विरोध नहीं पड़ता है क्योंकि शब्दों के श्रोत्र इन्द्रिय-जन्य मतिज्ञान को कारण मान कर हुये श्रु तज्ञान के समान हमने नासिका, स्पर्शन, आदि इन्द्रियों से उपजे गन्ध का सूघना, स्पर्श का छू लेना, आदि मतिज्ञानों को भी पूर्ववर्ती मान कर हुये श्र तज्ञानों को इष्ट किया गया है, उस ज्ञेय अर्थ की प्रतिपत्ति के हेतु होरहे और सदृशगंधवान् या अभिनेय अर्थों के ग्राहकपन परिणाम से युक्त होरहे प्रात्मा की गन्ध-स्फोट, हस्तस्फोट ऐसी सज्ञायें कर ली जाती हैं, चाहे शब्द स्फोट हो अथवा गन्ध-स्फोट हो बुद्धिस्वरूप ग्राहकत्व परिणति कोई प्रात्मतत्व से निराला पदार्थ नहीं है।
गंधादिभिः कस्यचिदर्थ-य संबंधाभावात् तत्र तदु भनिमित्तकप्रन्ययानुपपत्तने तथा परिणतो बुद्धयरमा स्फोटः संभातीति चेत्, ततएव शब्द फोटोप मास्म भूत् शब्दम्या र्थन सह योग्यतालक्षण संबंधपद्मावात तन्संभवे तन एवेतरस भवः । गधादीनामर्थन मह यो ग्यताख्यसम्बन्धाभावे सकेतसहस्र पि ततस्तत्प्रतीत्ययागाच्छब्दतः शब्दाथवत् ।
वैयाकरण अपने ऊपर आये हुये आपादनों का निराकरण यों करते हैं, कि गंध, स्पर्श, हंसपक्ष्म, वित्कुटित आदि के साथ किसी भी अविनाभावी होरहे अर्थ का सम्बन्ध नहीं है। अत: " स्फुटति अर्थः अस्मिन् आत्मनि, इस निरुक्ति अनुसार उस आत्मा में स्फोट सम्पादक माने गये उन पूर्व पूर्व के गन्ध आदि विशेषों के उपलम्भ को निमित्त पाकर हुयी मानी जा रही उन सहश गन्ध वा अभिनेय ( शरीर क्रियानों द्वारा दिखाने योग्य प्रमेय ) अर्थों की प्रतीति नहीं बन पाती है। अतः तिस प्रकार ग्राहकत्व परिणति से युक्त होरहा बुद्धिस्वरूप प्रात्मा स्फोट नहीं सम्भवता है। यों कहने पर वो