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________________ २७४ bote - वार्तिक गतियाँ ज्ञान स्वरूप पड़ती हैं, वीर्यान्तराय कर्म, ज्ञानावरण कर्म, श्र तज्ञानावरण कर्म, इनके क्षयोपशम से उत्पन्न हुयी आत्मा की ज्ञान-शक्ति भाव- वाक्य है, कण्ठ, तालु, आदि में व्यापार कर रहे क्रियावान् या क्रिया- सम्पादक आत्मा की वह शक्ति पौद्गलिक वचनों को बनाने में भी सहायक होजाती है । सप्तभंगी के पहिले तीन भंगों अनुसार वह भाव - वाक्य स्वरूप आत्मा कथंचित् एक स्वभाव, अनेक स्वभाव, और एकानेकस्वभावों को धार रहा है, प्रत्येक ज्ञान में सम्वेदक, सम्वेद्य सम्बित्ति, ये तीन अश पाये जाते हैं. सम्पूर्ण सत् पदार्थों में उत्पाद व्यय, ध्रौव्य, ये तीन प्रश भी पाये जाते हैं । श्री समन्तभद्राचार्य भगवान् तो "बुद्धि - शब्दार्थसज्ञाष्टास्तिस्रो बुद्धयादिवाचकाः । तुल्या बुद्धयादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिविम्बका:" इस देवागम की कारिका अनुसार प्रत्येक अर्थ को तीन प्रकार से विभाजित करते हैं, घट शब्द, घटप्रर्थ, घटजान, इन स्वरूपों से "घट" माना जा सकता है, व्याकरण पढ़ने वाले विद्यार्थी को घट कह देने से वह घटः घटौ घटाः । घटं घटो घटान् इत्यादि शब्द रूपों को सुनाने लग जाता है, यह शब्द हुआ । कुम्हार के प्रति घट कह देने से वह मिट्टी के घड़े को सोंप देता है, यह अर्थ है । न्याय को पढ़ने वाले छात्र के सन्मुख कहे गये घटद्वारा घटज्ञान करा दिया जाता है, यह ज्ञान -परक है, यों सभी अभिधेय अर्थों की त्रिधा श्रंश कल्पना होसकती है, श्रतः चाहे शब्द-ग्रात्मक वाक्य को स्फोट माना जाय प्रथवा भले ही बुद्धिस्वरूप शब्द को स्फोट कहा जाय प्रतीतियों अनुसार इनको सांश और एकानेक स्वभाववान् मान लेने पर तो हमें कोई प्रसंग नहीं उठाना है । संज्ञा मात्र से भेद होजाने पर हमारा तुमसे काई विरोध नहीं है हाँ अर्थभेद तो अवश्य खटका उत्पन्न करता है। उसके लिये जैन सिद्धान्त अनुसार समीचीन युक्तियों के मिल जाने पर स्फोट-वादी वैयाकरणों को संतोष कर लेना चाहिये । न चायमभिनिवेशः शब्दस्फाट इति श्रयान् गन्धादिस्फोटस्य तथाभ्युपगमाईस्वात् । यथैव शब्दः वक्तुगृ हो सकस्य काचिदर्थप्रतिपतितु तथा गंवादिरपि शेष भ वात् । एवंविधमेक गधं समाघ्रायत्यवावधार्थः प्रतिपत्तव्यः स्पर्शं संस्पृश्य, रसं चास्वाद्य, रूपं वाली - क्येत्थभूतमीदृशो मावः प्रत्येतव्य इति समयग्राहिणां पुनः काचित्ता हरागन्ध द्युपलं माशथाविधार्थनिर्णयप्रासद्धेर्गंधादिज्ञानाहित सस्कारस्यात्मनस्तद्वाक्यार्थ प्रतिपतिहेतोर्गं वादिपद स्फोटतोत्पत्तेः । पूर्वपूर्वगधादिविशेषज्ञाना हित संस्कारस्यान्मनोत्यगधादिविशेषापलम्भानन्तरं गंधादि शेषसमुदाय गम्यार्थप्रतिप। तहे तो गंवा दिवा स्फोटत्वघटनात् । हमें वैयाकरणों के प्रति एक बात यह भी कहनी है कि आप को केवल शब्दस्फोट का ही श्राग्रह किये चले जाना श्रेष्ठ माग नहीं पड़ता है क्योंकि यों तुम्हारे यहां माने गये शब्दस्फोट की प्रक्रिया अनुसार तिसप्रकार गन्धस्फोट, रसस्फोट, हस्तस्फोट प्रादि का स्वीकार कर लेना भी उचित पड़ जायगा देखिये जैसे ही प्राप वाक्यस्फोट को मानते हुये जिससे अर्थ स्फोट होता है, वह स्फोट है, यों निरुक्तिकरके शब्दस्फोटको इस प्रकार पुष्ट करते हैं कि इस घट शब्दको सुन कर कम्बु "
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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