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पंचम-अध्याय
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सुनाई देग्हे हैं, यो क्रम को उन वर्गों का विशेषण होजाना बन जाता ही है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वर्गों को एकान्त रूप से सर्वथा नित्य मानने पर वर्णों की अभिव्यक्ति की सभी प्रकारों से प्रसिद्धि होजाने का युक्तियों द्वारा समर्थन किया जा चुका है। अर्थात्-अनभिव्यक्त स्वभाव को छोड़ कर अभिव्यक्त परिणति को ग्रहण कर रहे वर्ण सर्वथा नित्य नहीं कहे जा सकते हैं, नित्य पक्ष में सभी वर्गों की संकीर्ण अति होने लग जायगी, आदि अनेक दोषों की सम्भावना है, अतः वर्णों की अभिव्यक्ति का पक्ष सर्वथा निर्बल है, युक्तियों से वर्गों में मुख्य क्रम की ही प्रसिद्धि होरही है, अतः वर्गों के क्रम को वाक्य कहने वाले का मत अनेकान्त पक्ष का अवलम्ब करते हुये हमें अच्छा जंचता है, व्यर्थ ही चाहे जिस सन्मुख आये हुये का निराकरण या तिरस्कार करने की टेव हमें अच्छी नहीं जंचती है।
कः पुनरयं क्रमो नाम वर्णानामिति चेत्, कालकृता व्यवस्थेति ब्रमः । कथमसौ वर्णानामिति चेत्, वर्णोपादानादुदात्ताद्या स्थावत् । तौँपाधिकः क्रमो वर्णानामिति चेन्न, उदात्ताद्यबस्थानामप्यौपाधिकत्वप्रसंगात् । अोपाधिक्युदाचाद्यवस्था एव वाचो वर्णत्वात ककारादिवदिति चेन्न, तेषां स्वयमनंशत्वासिद्धेः स्वभावतस्तथात्वोपपचेरन्यथा धनीनामपि स्वाभाविकोदात्तत्वाद्ययोगात् ।
___ ग्रन्थकार के प्रति कोई पूछता है, कि आप क्रम को वाक्य मानने वाले का इतना अधिक पक्षपात कर रहे हैं, तो बताओ जैन सिद्धान्त अनुसार यह वर्गों के क्रमका लक्षण भला फिर क्या है ? न्यायवेदियों के यहां जो भी कुछ क्रम का लक्षण किया जायगा उसमें न्यून, अधिक, करते हुये आप अवश्य ही अनेकान्तप्रक्रिया को जड़ देंगे।
यों कहने पर इसके उत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं, कि व्यवहारकाल करके की गई वर्णों की व्यवस्था ही क्रम है. ऐसा हम स्पष्ट निरूपण करते हैं । इस पर पुनः प्रश्न उठाया जाता है कि वह कालकृत व्यवस्था भला वर्णों का क्रम कैसे कही जा सकती है ? बतायो, यानी यह तो वही कथन हा कि 'पेट में पीड़ा और आँख में ओषधि लगाई गयी"।
.यों आक्षेप प्रवर्तने पर तो प्राचार्य कहते हैं, कि वर्णो करके व्यवहारकाल को निमित्त पाकर हुई परिणतियों का ग्रहण कियाजाता है, जैसे कि उदात्त, अनुदात्त, प्लुत, अनुनासिक, निरनुनासिक ह्रस्व, आदिक अवस्थाओं का उपादान वर्ण कर लेते हैं, अतः पहिले, पिछले, समयों में क्रम से होरही वर्णों की उत्पत्ति अनुसार वर्णों का क्रम माना जाताहै । "कालो न यातो वयमेव याताः" इसका अभिप्राय भी वही है कि समय नहीं गया उन उन समयों में हुई हमारी अमूल्य अवस्थायें व्यर्थ निकल गयीं, समय बेचारा चला भी जाय तो हमें कोई अनुताप नहीं है।
पूर्व पक्ष वाला पण्डित कहता है कि तब तो वर्णों का क्रम वास्तविक नहीं होकर केवल उपाधि के अनुसार कियागया औपाधिक हुआ जैसे कि पापुष्प के सन्निधान से स्फटिक को लाच