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________________ २६९ इलोक-पातिक अथ येन क्रमेण विशिष्टास्ते तथा दृष्टान्तादृशा एव तदर्थस्यावबोधका इति मतं, तहष्टिः क्रमो वर्णानामन्यथा तेन विशेषणाघटनात् । वक्रम को वाक्य मानने वाले विद्वान् पर ठेस जमा रहा कोई इतर पण्डित यों कहता है, कि यह कथन इस प्रकार सत्य होसकता है कि जितने और जिस जिस प्रकार के जिन जिन वर्णों की पदार्थ के पतिपादन करने में सामर्थ्य जानी जा चुकी है, वे वर्ण उस ही प्रकार से वाच्यार्थ का बोध करा देते हैं, इसप्रकार हमारे शास्त्रोंमें निरूपण है. उन वर्णों से न्यारे वाक्य का निराकरण करदिया जाता है । अर्थात् - योग्य अनुपूर्वी को लिये हुये वर्ण ही वाक्य हैं, उनसे न्यारा कोई क्रम वाक्य नहीं है। प्राचार्य कहते हैं कि वह मीमांसक पण्डित भी वर्गों के क्रम का यदि निराकरण करेगा तब तो स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला पुरुष अग्निष्टोम नामक यज्ञ करके याग कर इस मत्र के प्राकार, गकार आदिक जितने भी जो जो वर्ण हैं, जिनकी कि अपने इष्ट वाक्यार्थ का प्रतिपादन करनेमें शक्ति जानी जा चुकी है, वे वर्ण उतने ही यानी न्यून, अधिक, नहीं होरहे ही वाक्याथ को कहेंगे तब तो उद्गम यानी क्रम भंग होजाने से भी उच्चारण किये जारहे तिस प्रकार वाक्यार्थ के प्रतिपादक होजामो क्योंकि वर्णों के क्रम को नहीं मानने वाले के यहां चाहे वर्ण ठीक क्रम से बोल दिये जांय ? अथवा अक्षरों को आगे पीछे कर विपरीत क्रम से भी बोल दिया जाय वे अपने अर्थ को कहतेही रहने चाहिये कोई अन्तर नहीं है । ऐसी दशा में घट को टघ या साधन को नघसा कहने वाले व्युत्क्रमभाषी के शब्दों करके भी अर्थ प्रतिपत्ति बन बैठेगी, अशुद्धियां भी नष्ट प्राय होजायगी। अब यदि तुम यों कहो कि वे वर्ण जिस क्रम करके विशिष्ट होरहे तिस प्रकार संकेत काल में देखे जा चुके हैं, उनके समान जातीय वर्ण ही उस वाच्य अर्थ का परिज्ञान कराते हैं। प्राचार्य कहते हैं, कि यो मन्तव्य होय तब तो वर्णों का क्रम तुमने इष्ट ही कर लिया अन्यथा यानी वर्गों के क्रम का प्रत्याख्यान करते ही चले जाते तो उस क्रम करके सहित पना यह वर्णों का विशेषण घटित नहीं होसकता था इससे सिद्ध है, कि वर्गों के क्रम को वाक्य मानना कोई बुरा पक्ष नहीं है। वर्णाभिव्यक्तेः कमो न वर्णानां तेषामक्रमत्वात् । उपचारात्तु तस्य तत्र मावात्तविशेषणन्वमुपपद्यत एवेति चेन्न, एकांतनित्यत्वे वर्णानाम भव्यक्तः सर्वथा नुपपत्तेः, उपपात्तसमर्थनात्तत्र मुख्यक्रमस्य प्रसिद्धः। वर्णों के क्रम को वाक्य नहीं चाहने वाले मीमांसक यदि यों कहैं कि वर्ण तो नित्य हैं, व्यापक हैं, नित्य विद्यमान होरहे पदार्थ का काल-सम्बन्धी क्रम और व्यापक होरहे पदार्थ का दैशिक कम बन नहीं सकता है, हां कण्ठ, तालु, ध्वनि, आदि अभिव्यंजकों द्वारा होरही वर्गों की अभिव्यक्ति का क्रम तो माना जा सकता है, किन्तु वर्णों का क्रम नहीं है, क्योंकि उन वर्गों का क्रम-रहितपना निर्णीत है, हाँ उपचार से तो उस क्रम का उन वणों में सद्भाव मान लियाजाता है, अतः क्रम से वर्ण
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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