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खोक-पातिक
कह दिया जाता है। ग्रन्थ कार कहते हैं यह तो नहीं कहना क्योंकि वर्णों के क्रम को यदि औपाधिक माना जायगा तो वर्गों की स्व शरीर होरही उदात्त, स्वरित, आदि अवस्थाओं के भी औपाधिक पने का प्रसंग पाजावेगा जो कि इष्ट नहीं है । पुनः यदि तुम कहो कि वचन की उदात्त, अनुदात्त, प्रादि अवस्था तो उपाधियों से जन्य ही है यानी वर्गों की गांठ का स्वरूप नहीं है ( प्रतिज्ञा ) वर्ण होने से । हेतु ) ककार, चकार, प्रादि वर्गों के समान ( अन्वय दृष्टान्त )। अर्थात्-न्यारे न्यारे अभिव्यंजकों अनुसार वाचाओं की क, च, ह, आदि वर्ण व्यवस्था प्रकट हो जाती है, उच्च उच्चारण नीच उच्चारण, आदि अभिव्यंजकों द्वार। उदात्त प्रादि अवस्था गढ़ ली जाती है किन्तु ये अवस्थायें शब्द का मूल शरीर नहीं हैं।
ग्रन्थकार कहते हैं यह तो नहीं कहना क्योंकि उन वर्गों का स्वय मूल शरीर से अंश रहितपना प्रसिद्ध है, यथार्थ रूप से विचारा जाय तो वर्गों के स्वकीय स्वभाव मे ही तिसप्रकार ककार, चकार, उदात्त, अनुदात्त, आदि अवस्थायें गांठ की बन रही हैं अन्यथा यानी ककार, उदात्त आदि प्रवस्थानो को अभिव्यञ्जक कारणोंका ही स्वरूप मानते हुये यदि शब्दोंकी मूल पूजी नहीं माना जायेगा तो हम कह सकते हैं कि ध्वनियों के भी अपने गांठ की स्वाभाविक उदात्तपन प्रादि अवस्थानों का योग नहीं बन सकेगा यानी ध्वनियों में भी उदात्तपन गांठ का नहीं है किसी दूसरे पदार्थ से ऋण लिया गया है और दूसरे पदार्थ में भी कहीं अन्य स्थल से उधार लियागया होगा यों कहने वाले का मुख कोई पकड़ा नहीं जा सकता है। एक बात यह भी है कि ककार, प्रकार, उदात्त, आदि अवस्थाओं को यदि वाचारों का औपाधिक स्वरूप माना जायगा तो फिर वाचारों की गांठ का कोई निज शरीर ठहरता ही नहीं है, जब गांठ का कोई शरीर नहीं तो प्रौपाधिक धर्म किस पर चढ़ बैठे ? बात यह है कि जगत् के सभी पदार्थ अनेक अंशों से सहित हैं जो जिसका स्वरूप, प्रमाणों से सिद्ध है वह उसी का अंग माना जाता है, वर्गों के ककार, उदात्त, प्रादि निज अश प्रतीत-सिद्ध हैं, अतः वे औपाधिक नहीं कहे जा सकते हैं । खांड का मीठापन, जल का द्रवपन, अग्नि की उष्णता. वायु का वहना, पत्थर का गुरुत्व, ये सब गांठ के अंश हैं, औपाधिक नहीं हैं। --
ततः स्वकारणविशेषवशात् क्रमविशेषविशिष्टानाम कारादिवर्णानामुत्पत्तेः कथंचिदनर्थान्तरं क्रमः । स च सादृश्यसामान्यादुपचारादेकः प्रतिनियनविशेषाकारतया त्वनक इात स्याद्वादिनामेकानेकात्मकः क्रमोपि वाक्यं न विरुध्यते ।
तिस कारण सिद्ध हुआ कि अपने अपने उत्पादक विशेष कारणों के वश से हुये क्रम विशेष करके विशिष्ट होरहे ही आकार आदि वर्णों की उत्पत्ति होरही है. अत: वह काल-सम्बन्धी क्रम वर्गों से कथंचित् अभिन्न है जैसे कि यथाक्रम आतान, वितान, स्वरूप किये गये तन्तुओं का दैशिक क्रम थान से अभिन्न है और वह अनेक वर्षों से अभिन्न होरहा क्रम यद्यपि वस्तुतः अनेक है तो भी सदृशपरिणाम-स्वरूप सामान्य के पाये जाने से वह क्रम उपचार से एक कह दिया जाता है प्रत्येक