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________________ २६४ श्लोक-वातिक तब तो सम्बन्ध के विना “इन अवयवों का यह वाक्य है" अथवा उस वाक्य के ये अवयव हैं यों सम्बन्ध का निरूपण करने वाली षष्ठी विभक्ति नहीं उतर सकती है, उपकार किये जाने पर ही सम्बन्ध की व्यवस्था मानी गयी है, पिता पुत्र सम्बन्ध, गुरु शिष्य सम्बन्ध, पति पत्नी सम्बन्ध, स्वस्वामी सम्बन्ध, कार्य कारण भाव, आदि में परस्पर उपकार द्वारा नाता जुड़ा हुआ है, शिष्य का उपकार गुरु पढ़ा कर कर देता है और शिष्य भी गुरु जी की सेवा, अनुकूल व्यवहार, श्रद्धा, करता हुया उपकार करता है । इत्यादि प्रकार अनुसार यदि यहाँ वाक्य और उसके अवयव होरहे पदों में सम्बन्ध की स्थिरता के लिये उपकार की कल्पना की जायगी, तब तो वाक्य को अवयवों के कार्य होजाने का प्रसंग होजायेगा क्योंकि उन अवयवों ने वाक्य के ऊपर उपकार किया है जो कि उपकार उस उपकृत हुये वाक्य से अभिन्न है, अत: अवयवों ने उपकार क्या किया मानो वाक्य को ही बनाया। अथवा यदि वाक्य की ओर से अवयवों के ऊपर उपकार कियाजाना माना जायेगा तो अवयवों को वाक्य के काय होजाने का प्रसंग अावेगा क्योंकि उस वाक्य करके अनेक अवयव उपकार को प्राप्त किये जा रहे हैं, वाक्य ने अवयदों से अभिन्न होरहा अवयवों का उपकार किया मानो अवयवों को ही बनाया, शब्द को नित्य मानने वाले मीमांसक या वैयाकरण उन पद या उन वाक्यों का बनाया जाना इष्ट नहीं कर सकेंगे। शब्द अनित्य नहीं होजाय इसलिये वैयाकरण यदि अवयवों की ओर से वाक्य पर किये गये उपकार को वाक्य से भिन्न पड़ा रहा स्वीकार करेंगे अथवा वाक्य की ओर से किये गये अवयवों के ऊपर उपकार को अवयवों से निराला पड़ारहा मान बैठेंगे तब तो उपकृत से उपकार को भिन्न मानने पर उन उपकृत और उदासीन होकर भिन्न पड़े हुये उपकारों के परस्पर सम्बन्ध की सिद्धि नहीं हो सकी क्योंकि उपकार होने से सम्बन्ध व्याप्य होरहा है जहाँ उपकार कोई नहीं है वहाँ सम्बन्ध भी नहीं है। जगत में स्वाथ का नाता है, साक्षात् या परम्परा प्रयोजन सिद्धि के विना कोई किसी से सम्बन्ध ही नहीं रखता है, अतः अवयव और वाक्यों में उपकार हुये विना जैसे सम्बन्ध की सिद्धि नहीं हो सकी थी उसी प्रकार उपकृत और भिन्न पड़े हुये उपकारों में परम्पर उप. कार हये विना सम्बन्ध ( गठ बन्धन ) नहीं हो सकता है, अतः इन उपकृत वाक्य या पदों को न्यारे उपकार के साथ जोड़ने के लिये यदि उनके अन्य उपकारों की कल्पना की जायगी तो अनवस्था दोष होजाने का प्रसंग प्राता है, कारण कि भेदपक्ष में वे उपकार भी भिन्न ही पड़े रहेंगे उनके जोड़ने के लिये पुनः अनेक उपकारों को मध्य में लाने की आकांक्षा बढ़ती ही चलो जायगी, हाँ किये गये उपकारों को यदि उपकृत से अभिन्न मान लिया जाय तो अनवस्था टल सकती है किन्तु यों मान लेने पर उपकृत वाक्य या पद अनित्य हुये जाते हैं, शब्द को नित्य मान रहे पण्डिा अनवस्था को भले ही सहन करलें परन्तु शब्द का अनित्यपना उनको सह्य नहीं है। इस प्रकार वाक्य और उसके प्रक्यवों का भेद-एकान्त अथवा अमेव एकान्त को क्सान
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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