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कराने में हेतु होसकेंगे तब तो हम जैन कह सकेंगे कि तिस ही प्रकार कथंचित् एकपन और नेकपन धार रहे वे वर्ण ही अर्थ की प्रतिपत्ति कराने में निमित्त कारण होजाओ, इस व्यर्थकी लम्बीपरम्परा से क्या लाभ ? कि प्रथम तो बहुत से वर्णों से नित्य स्फोट को प्रगट किया जाय पश्चात् उस अभिव्यक्त हुये स्फोट से अर्थ की प्रतिपत्ति की जाय, दार्शनिकों के यहां ऐसी निरर्थक परम्परा नहीं मानी जाती है। इस कारण सिद्ध होता है कि आपका माना हुआ वह स्फोट वर्णों से कोई भिन्न नहीं है, कथंचित् अभिन्न है यों वर्णों से अभिन्न होरहे उस स्फोट का यदि श्रोत्र जन्य ज्ञान में प्रतिभास जाना स्वीकार किया जायगा तो मीमांसकों के यहां वह स्फोट भला एक श्रनेक स्वभाव वाला क्यों नहीं हो सकेगा ? यानी - शब्दप्रात्मक स्फोट एक अनेक स्वभाव वाला है । जैसे कि सुख, दुख, ज्ञान, पुरुषार्थ ( प्रयत्न ) प्रादि अनेक पर्यायों के साथ तदात्मक होरहा श्रात्मा बेचारा एक अनेक स्वभाव वाला है, देखिये स्वयं प्रात्मा द्रव्य एक है। उससे भिन्न होरहे सुख दुःख प्रादिक अनेक विवर्त हैं, अतः आत्मा यह एक अनेक प्रात्मक है ।
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पंचम-प्रयाय
अथवा दूसरा दृष्टान्त यों समझिये कि नवीन, पुरानी, अर्धजीं, प्रादि अवस्था विशेषों के साथ तदात्मक होरहा वस्त्र, गृह, आदि पुद्गल स्कन्ध जैसे एक अनेक ग्रात्मक है, अनेक पुद्गल द्रव्यों का पिण्ड होरहा स्कन्ध नामक अशुद्ध पुद्गल द्रव्य एक है, उसकी अभिन्न हो रही नयी, पुरानी, आदि अवस्थायें न्यारी न्यारीं अनेक हैं, इसी प्रकार शब्द भी एक-अनेक स्वभाव वाला है, भले ही शब्द की किसी एक शक्ति या पूरे शब्द का नाम स्फोट कर लिया, इस अर्थ के बिना हुये कोरे शब्द मात्र के भेद से हम वैयाकरणों के साथ कोई विवाद नहीं करते हैं "अर्थे तात्पर्यं न तु शब्दजाले,,
भाषावर्गणा पुद्गलद्रव्यं हि स्वसहकारिविशेष-वादकाररूपतामासाद्य भकारादिरूपतामामादयत् क्रमशः प्रतिनियतः क्तृ शेष देर म्याजे या दिगख्यातशब्दः प्रतिभासते न चासौ वाक्यं देवदत्तादिपदनिरपेक्षस्तदुच्चार वैयर्थ्यापत्तेः । सत्तापेक्षस्य तु वाक्यत्वे देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेत्यादि कथचित्पदात्मकं वाक्यमेकाने कस्वभावमाख्यातशब्दवदभिधातव्यं, तन्निराकृतौ च क्षयैकान्ता लंबन प्रसंगात् ।
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भाषा वगरणा स्वरूप पुद्गल द्रव्य तो नियत होरहे अपने विशेष विशेष सहकारी कारणों के वश से श्रभ्याज " यहां प्रकार स्वरूप को प्राप्त कर भकार, यकार आदि-पन को धार रहा सन्ता क्रम क्रम से प्रति-नियत होरहे वक्ता विशेषं या श्रोता विशेष आदि को अभ्याज, पच, गच्छ, आदिक आख्यात शब्द स्वरूप करके प्रतिभास जाता है किन्तु वह अकेला प्राख्यात शब्द तो देवदत्त, गो, श्रादि पदों की नहीं अपेक्षा रखता हुआ। कथमपि वाक्य नहीं होसकता है, वैयाकरणों के यहां यदि केवल तिङन्त श्राख्यात शब्द ही पूरा वाक्य मान लिया जायगा तो उन देवदत्त, गां, आदि पदों के उच्चारण करने के व्यर्थपन का प्रसंग प्रजावेगा । यदि उन देवदत्त आदि पदों के सद्भाव की अपेक्षा रखने वाले प्राख्यात शब्द को वाक्यपना इष्ट करोगे तवतो " हे देवदत्त तू घौली गाय