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पंचम-मध्याय
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अब प्राचार्य महाराज समाधान करते हैं, कि इस प्रकार कह रहा यह प्रसिद्ध विद्वान् स्फोटवादी भी यो प्रश्न करलेने योग्य है, कि क्योंजी यह तुम्हारा स्फोट क्या शब्द-प्रात्मक है ? अथवा क्या शब्द स्वरूप नहीं होरहा किसी अन्य पदार्थ स्वरूप है ? बतायो, प्रादि का पक्ष ग्रहण करना तो श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि शब्द स्वरूप मान लिये गये उस स्फोट की सर्वदा एक स्वभाव वाले होरहे की प्रतीति नहीं होती है, वर्णों, पदों, स्वरूप होरहे अनेक स्वभाववाले शब्दका सदा प्रतिभास होरहा है।
___ यदि वैयाकरण यों कहैं कि वर्ण और पदों से भिन्न होरहे एक स्वभाव वाले ही शब्द का कर्ण इन्द्रिय-जन्य ज्ञान में प्रतिभास होरहा है । अतः स्फोट के अभाव को - धने वाली स्वभाव अनुपलब्धि अथवा स्वभावविरुद्धोपलब्धि तो प्रसिद्ध है । अर्थात्- “स्फोटो नास्ति अनुपलब्धेः अथवा स्फोटो नास्ति अनेक स्वभावात्मकशब्दस्य वोपलब्धेः" इन अनुमानों में पड़े हुये दोनों हेतु बेचारे स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास हैं । असत् हेतु तो स्फोट के अभाव को नहीं साध सकते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि शब्द और वाच्यार्थ के मध्य में व्यर्थ गढ़ लिये गये उस स्फोट का वण और पदों के श्रावरण प्रत्यक्ष के असर पर अथवा पीछे भी प्रतिभास नहीं होता है। जिस उपलम्भ योग्य माने गये पदार्थका ज्ञान नहीं होय फिर भी उसका सद्भाव माने चले जाना केवल बालाग्रह मात्र है।
स हि यदि तावदाख्यातशब्दः प्रतिम सत एव वाक्यात्मा तदा नैकस्वभावोऽनेकनगर्गात्मकत्वात भिन्न , एवाख्यातशब्दोऽभ्याजेन्यादिवर्णेभ्य इत्ययुक्तं, तथा प्रतीत्यभावात् ।
वैयाकरणों का विचार है"पाख्यातशब्दः सङ्घातो जातिः संघात-वत्तिनी। एकोऽनवयवः शब्दःक्रमो बुद्धघनुसंहृतिः ॥ १॥ पदमाद्य पदं चांत्यं पदं सापेक्ष मित्यपि। वाक्यं प्रतिमतिभिन्ना बहुधा · न्यायवेदिनाम् ।। २ ।।,
न्याय को जानने वाले विद्वानों की वाक्य के लक्षण प्रति अनेक प्रकार भिन्न भिन्न मतियां हैं। कोई भवति, पचति, इत्यादि प्रख्यात शब्द को वाक्य मानते हैं । एक तिड़ वाक्यं,,।
अन्य पण्डित तो वर्णों या पदों के संघात यानी समुदाय को वाक्य कहते हैं. कोई संघात में वर्त रही जाति को वाक्य कहते हैं, इतर पण्डित बेचारे अवयवों से रहित होरहे एक अखण्ड स्फोट-प्रात्मक शब्द को बाक्य मान रहे हैं, वर्णों के क्रम को वाक्य कोई कोई मान बैठे हैं, चारों ओर से संकोच कर बुद्धि का एक शब्द पिण्ड द्वारा परामर्श किया जाना वाक्य भी क्वचित् माना जा रहा है, तथा अन्य पदों की अपेक्षा रखने वाला आद्यपद अथवा अन्य पदों की अपेक्षा रखने वाला अन्तिम पद भी वाक्य होसकता है, यों वाक्य के लक्षण में कई सम्मतियां हैं तदनुसार आचार्य महाराज एक एक मन्तव्य पर क्रम से विचार चलाते हैं।
वाक्य के लक्षणों में सब से पहिले तिङन्त पाख्यात शब्द को वाक्य मानने वाले वैयाकरण यदि यों कहैं कि वह आख्यात शब्द तो वाक्यस्वरूप होता हुआ सब को प्रतिभासता ही है, तब तो हम