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________________ ३५८ कम्बल में कोई ब्राह्मणता का सूचक अर्थ नहीं है, उस ही प्रकार "देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डन,, इस वाक्य में देवदत्त श्रादि पद भी निरर्थक हैं । तथाच न पदार्थसमुदाय एव वाक्यस्यार्थस्तस्य ततोन्यत्वादेकत्वेनाप्रतीयमानत्वादभ्याजन क्रियादेर्देवदत्तादिवाक्यार्थत्वात् । न च तस्य वर्णेभ्य इत्र पदेभ्योपि प्रतिपत्तिः संभवतीति तत्प्रतिपत्तिहेतुर्वर्ण दव्यतिरिक्तः कश्चिद्वस्त्वात्माभ्युपगं व्यिः । स च स्फोट एत्र, स्फुट त्यर्थोऽस्मादिति स्फोट इति तस्यैकरूपता पुनरेका कारप्रतिभासादवसीयते नाना कारेभ्यो हेतुभ्य स्तदयोगादहेतुकत्व प्रसंगादिति । व्याकरणवेत्ता ही अपना सिद्धान्त कह रहे हैं कि और उक्त ढंग से तिस प्रकार दशा होजाने पर पदों के अर्थों का समुदाय ही वाक्य का अर्थ नहीं होसका क्योंकि उस वाक्य का अर्थ उन पदों के न्यारे न्यारे तितरे वितरे अर्थों से भिन्न हैं. पदों के अर्थ और वाक्य के अर्थ की एकपन करके प्रतीत नहीं होरही है, अभ्याजन यानी घेर लाना क्रिया आदिक तो देवदत्त गां इत्यादिक वाक्य का अर्थ है ! "एकतिङ वाक्यं" उस वाक्य के अर्थ की न्यारे न्यारे वर्णों से जैसे प्रतिपत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार पुष्पप्रकीर्ण समान यहां वहां विखर रहे स्वतंत्र पदों से भी वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होना नहीं सम्भवता है । इस कारण उस वाच्य अर्थ की प्रतिपत्ति को कराने का कारण कोई वर्णों नौर पदों से व्यतिरिक्त होरहा वस्तुभूत आत्मक पदार्थ स्वीकार कर लेना चाहिये और मीमांसकों के साथ स्वल्प मतभेद को धार रहे हम वैयाकरणों के यहां वही वस्तु स्फोट माना गया है। स्फोट शब्द की निरुक्ति से भी यही अर्थ निकलता है, कि जिससे वाव्य अर्थ स्फुट होजाता है, इस कारण वह स्फोट माना गया है । यों उस स्फोट का एक - रूपपना तो फिर एक आकार वाले होरहे प्रतिभास से निर्णीत कर लिया जाता है, क्योंकि अनेक आकार वाले हेतुत्रों से एक प्रखण्ड वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होजाने का प्रयोग है, यदि शब्द में ठहर रहे स्फोट को एक स्वरूप नहीं माना जायगा तो वाच्यार्थ की एक प्रखण्ड प्रतिपत्ति को निर्हेतुकपन का प्रसंग होगा किन्तु प्रतिनियत देश, काल, आकारों वाली यह समीचीन प्रतिपत्ति तो विना कारणोंके नहीं होसकती है। यहां तक मीमांसक पण्डित प्रपने स्फोटवाद के पूर्व पक्ष को पूर्ण कर चुके हैं। सोप्ययं स्फोटवादी प्रष्टव्यः, किमयं स्फोटः शब्दात्म कोऽशब्दात्मको वा ? इति । न तावदाद्यः पक्षः श्रयान्, तम्य स्फोटस्य शब्दात्मनः सदैकस्वभावस्याप्रतीतेः वर्णपदात्मनो नानास्वभावस्यावभासनात्, वर्णपदेभ्यो भिन्नस्यैकस्वभावस्येव शब्दस्य श्रोत्रबुद्धौ प्रतिभासनादसिद्धा स्वभावानुपलब्धिः स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्वा न स्फोटाभावसाधनीति चेत् न, तस्य वर्षापदश्रवणकाले पश्चाद्वा प्रतिभासाभावात् ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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