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श्लोक-वातिक वेन्द्रियग्राह्यपुद्गलम्कंधान्मा शब्दः प्रादुर्भवन् कारणगुणपूर्वक एव पटरूपादिवत् । ततोऽकारणपूर्वकन्वादित्यसिद्धो हेतुरयावद्रव्यभावित्वादिवत् ।
रूप, रस, आदि का प्राश्रय भले ही परमाणु होजागो किन्तु परमाणु स्वरूप पुद्गल द्रव्य सूक्ष्म स्थूल माने गये शब्द का प्राश्रय नहीं होसकता है, (प्रतिज्ञा ) वाह्य इन्द्रिय करके ग्रहण करने योग्य होने से । हेतु ) वादरसूक्ष्म, होरहे छाया, घाम, चाँदनी, आदि के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) हाँ मोटा स्कन्धस्वरूप पुद्गल तो शब्दका आश्रय होसकेगा इसकारण सूक्ष्मरूप से शब्द गुण को तदात्मक होकर धार रहे सूक्ष्म भाषा वर्गणा नामक पुद्गलों से हम आदि की बाहरली इन्द्रियों करके ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्ध स्वरूप शब्द-पर्याय प्रगट हो जाती है, जो कि कारण गुण-पूर्वक ही है, जैसे कि पटरूप,मोदकरस, आदि हैं । अर्थात्-सूतों के रूप अनुसार कपड़े में रूप उपज जाता है, खांड या वूरे की मिष्टता अनुसार लड्डू मीठा होजाता है, इसी प्रकार सूक्ष्मरूप से शब्द गुण को धार रहीं यानी शक्ति रूप से झटिति शब्द होने की योग्यता को धार रहीं पुद्गलवर्गणाओं करके शब्द उपज जाता है, पूर्ववर्ती होरहे कारण के गुण कार्य में प्राजाते हैं, तिस कारण वैशेषिकों द्वारा कहा गया “अकारणगुणपूर्वकत्वात्" यह हेतु प्रसिद्धहेत्वाभास है जैसे कि अयावद्रव्य-भावित्व, द्रव्य कर्मभिन्नत्वे सति सत्व, आदिक हेतु प्रसिद्ध हैं। भावार्थ-योगों ने शब्द में स्पर्शवान् द्रव्यके गुण नहीं होने को साध्य करने पर प्रयावत् द्रव्यभावित्व और अकारणगुणपूर्वकत्व ये दो हेतु कहे थे उक्त विचारणा होचुकने पर वे दोनों हेतु सिद्ध नहीं होपाये हैं ।
कश्चिदाह अकारणगुणपूर्वकः शब्दोऽस्पर्शद्रव्यगुणत्वात् सुखादिवदिति तस्यापि परस्पराश्रयः । सिद्धे ह्यकारणगुणपूर्वकन्वे शब्दस्यास्पर्शवद्र्व्यगुणत्वं सिद्ध्येत् तत्सिद्धौ वाकारणगुणपूर्वकत्व मिति । नथा नाकारणगुणपूर्वक: शब्दोम्मदादिवायेन्द्रियज्ञानपरिच्छेद्यत्वेसति गुणत्वात् घटरूपादिवदित्यनुमानविरुद्धश्च पक्षाः स्यात् नात्र हेतोः परमाणुरूणदिना व्यभिचार: सुखादिना वा, वाह्येन्द्रियज्ञानपरिच्छेद्यत्वे सतीति विशेषणात् ।
कोई वैशेषिक का एक-देशी पण्डित यो यहां कह रहा है कि शब्द ( पक्ष ) स्वकीय कारणों के गुणों को पूर्व-वृत्ति मानकर आत्म-लाभ कर रहे निज गुणों का धारी नहीं है ( साध्य ) स्पर्श गुण से रीते हो रहे किसी द्रव्य विशेष का गुण होने से ( हेतु सुख, इच्छा शादि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । ग्रन्थकार कहते हैं कि उस वैशेषिक के यहां भी अन्योन्य श्रय दोष पाता है। शब्द को अकारणगुणपूर्वाकपना सिद्ध हो चुकने पर विचारा नहीं स्पर्श वाले द्रव्य का गुण होना सिद्ध होय और शब्द को स्पर्श रहित द्रव्य का गुण होना सध चुकने पर तो शब्द का अकारण-गुण पूर्वकपना सध सके । अर्थात्-वैशेषिकों ने पहिले " यदुक्तं योगे:” यहां से प्रारम्भ कर “न स्पर्शवद्रव्यगुणः शब्दः अकारणगुणपूव कत्वात् " इस