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________________ पंचम - अध्याय २४३ अनुमान द्वारा प्रकारणपूर्वकत्व हेतु से स्पशवद्द्रव्यगुणत्वाभाव को शब्द में साधा था धौर अब अस्पर्शद्रव्यगुणत्व हेतु से अकारण गुण पूर्वकत्व को साध रहे हैं, यह स्पष्ट इतरेतराश्रय दोष दीख रहा है, दोनों में से यदि एक सिद्ध होय तब तो दूसरे प्रसिद्ध साध्ध को वह समझा सकता है किन्तु जब दोनों ही अधेरे में पड़े हुये हैं तो किस प्रसिद्ध से कौन से प्रसिद्ध की सिद्धि की जा सकती है ? एक अन्धे को दूसरे अन्धे द्वारा अज्ञात या अपरिचित पथ का प्रदर्शन नहीं कराया जा सकता है तथा एक बात यह भी है कि शब्द ( पक्ष ) कारणों के गुणों को पूर्ववर्ती स्वीकार कर उपज रहा नहीं है ( साध्य ) हम आदि प्रसर्वज्ञ जीवों की वहिरंग इन्द्रियों से उपजे हुये ज्ञान द्वारा जाना जा रहा सन्ता गुण होने से हेतु ) घटरूप, पटरूप, आदि के समान ( श्रन्वयष्टान्त ) । इस निर्दोष अनुमान करके भी तुम्हारा पक्ष विरुद्ध होजाता है अर्थात् वैशेषिकों का स्पर्शवद्रव्यगुणत्व हेतु सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है। इस अनुमान में कहे गये हेतु का परमाणुरूप, द्वधकरूप, आदि करके अथवा सुख, इच्छा, आदि करके व्यभिचार दोष नहीं श्राता है क्योंकि हेतु के शरीर में वहिरंग इन्द्रिय-जन्य ज्ञान से ज्ञ ेय होते सन्ते ऐसा विशेषरण दे रखा है । भावार्थयदि केवल गुणत्व ही विशेष्य दल होता तो व्यभिचार अवश्य ही हो जाता, जब कि परमारूप प्रादि या सुख प्रादि गुण तो हैं किन्तु वे श्रकारणगुणपूर्वक ही हैं, कारण गुणपूर्वकत्व या अकारण - गुणपूर्वकत्व का प्रभाव वाले वे नहीं हैं। वैशेषिकों के यहाँ परमाणुरूप के कारण होरहे परमाणु का और सुख के कारण होरहे नित्य आत्मा का कोई कारण ही नहीं माना गया है । जैन सिद्धान्त अनुसार यद्यपि " भेदादणुः " भेदसे अणु पर्याय की उत्पत्ति और पर्यायार्थिक नय अनुसार ग्रात्मा के भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य माने गये हैं फिर भी परमाणु या झात्मा के गुणों का कारण - गुरणपूर्वकपना नियत नहीं है । एक बात यह भी यहाँ विचार में रखने की है वैशेषिकों के मत की अपेक्षा यह विशेषण दिये जा रहे हैं, वंशेषिकों की युक्तियों से ही यदि वैशेषिकों के सिद्धान्त का निराकरण होजाय यह हमें प्रशस्त मार्ग जंचता है क्योंकि इसमें अधिक भटें नहीं उठानी पड़ती हैं । तथापि योगिवायेंद्रियप्रत्यक्षेण परम शुकनादिनानेकांत इति न शंकनीयमस्मदादिग्रहणात्। पृथिव्यादिसामान्येतानित्यद्रव्यविशेषेण समवायेन कर्मणा वा व्यभिचारइत्यपि न मंतव्यं गुणन्वादिति वचनात् न चैवं व्याद्वादिनामपसिद्धान्तः शब्दस्य पर्यायत्ववचनात् पर्यायस्य च गुणत्वात् तथा चाहुर कलंक देवाः शब्दः पुद्गलपर्यायः स्कंधः छायातपादिवदिति । तिस प्रकार वाह्य - इन्द्रिय इस विशेषरण द्वारा परमाणुरूप या सुख प्रादि करके व्यभिचार की निवृत्ति होते हुये भी यदि वैशेषिकों के मन में यह आशंका होय कि जैनों के
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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