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________________ पचम-अध्याय २३६ लेना, प्रादि वायुयें अनित्य होरही सन्ती हम आदि के चक्षुषों द्वारा नहीं जानी जाती हैं, किन्तु वे वायु द्रव्य तो हैं, यह व्यभिचार हुा । एक बात यह भी है, कि मीमांसकोंके प्रति कथन करने से शब्द का प्रनित्यपना विशेषण अप्रसिद्ध है जब कि मीमांसक शब्द का नित्यपना स्वीकार कर रहे हैं। अतः अस्मदादि अचाक्षुष प्रत्यक्षपन हेतु से शब्द में द्रव्यपन का निषेध नहीं सध सकता है, तथा शब्द में कर्मपन का निषेध करने वाले अचाक्षुष प्रयक्षत्व हेतु का वायु को चलन क्रिया करके व्यभिचार प्राता है । अर्थात्-वायु की क्रिया चक्षुरिन्द्रिय से नहीं जानी जाती है किन्तु उस क्रिया में क्रियात्वाभाव नामक साध्य नहीं रहा, वायु क्रिया तो कम पदार्थ है। द्रव्यं शब्दः क्रियात्वाद्वाणादिवदित्यपरे । ते यदि स्याद्वादमतमाश्रित्याचक्षते तदापसिद्धान्तः शब्दस्य पर्यायतया प्राचने निरूपणादन्यथा पुद्गलानां शब्दवत्व विरोधात् । द्रव्यार्थादेशाद्रव्यं शब्दः पुद्गलद्रव्याभेदादिति चेत् किमेवं गवादिरपि द्रव्यं न स्यात । यहाँ कोई दूसरे पण्डित जी यों कह रहे हैं कि शब्द ( पक्ष ) द्रव्य है, . साध्य ) क्रियावाला होने से ( हेतु ), वाण, गोली, वायु, आदि के समान (अन्वयदृष्टान्त ) । प्राचार्य कहते हैं कि वे पण्डित जी यदि स्याद्वाद सिद्धान्त का आश्रय लेकर कहरहे हैं तब तो उनके ऊपर अपसिद्धान्त नामक दोष है, क्योंकि वे जैन सिद्धान्त से बाहर जा रहे हैं, जैन शास्त्रों में शब्द को पर्यायरूप से कथन किया है. "सद्दो वंधो सुहमो थूलो संठाण भेदतमछाया। उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया" यानी शब्दको पुद्गलकी पर्याय नहीं माना जायगा नो पुद्गलोंको शब्द-सहितपन का विरोध होजावेगा द्रव्य ही सहभावी क्रमभावी पर्यायों को धारते हैं, हाँ स्याद्वाद सिद्धान्त के बल बूते पर द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से पुद्गल द्रव्यके साथ शब्द पर्याय का अभेद होजाने के कारण यदि शब्द को द्रव्य कहा जायगा तब तो इस प्रकार गन्ध प्रादिक भी क्यों नहीं द्रव्य होजावें पोलो या चापलूसीको बातें हमको मनोहर नहीं भासती हैं, युक्तिसिद्ध निर्णीत जैन-सिद्धान्त का निभय होकर प्राश्रय लेना चाहिये। द्रव्याथिक नय की दृष्टि अनुसार गन्ध गुण, की सुगन्ध दुर्गन्ध, पर्यायें नहीं ज्ञात हुयों केवल नित्य द्रव्य ही प्रतीत होता रहता है । अतः शब्द के समान गन्ध, रूप आदि भी द्रव्य हो जानो किन्तु यह प्रामाणिक मार्ग नहीं है। गन्धादयो गुणा एव द्रव्याश्रिवत्वात् निगुणत्वाच्च "द्रव्याश्रया निगुणा गुणा': इति वचनानिष्क्रियत्वाच्चेति चेत्,शब्दस्तत एव गुणोस्तु । ...शब्द को द्रव्य मानने वाले अपर विद्वान् कहते हैं। कि गन्ध, रूप, आदि तो गुण ही हैं, ( प्रतिज्ञा ), द्रव्य के प्राश्रित हारहे होने से और गुणों करके रहित होने से ( दो हेतु )। देखो स्वयं सत्रकार ने ऐसा कहा है, कि जो अधिकरण भूत द्रव्य के आश्रित होरहे सन्ते स्वयं पुनः अन्यगुणों से रहित हैं, वे गुण हैं । एक बात यह भी है कि क्रियाओं से रहित हाने के कारण ( तीसरा हेतु ) भी गन्ध आदिक तो गुण ही समझे जायके । यों कहने पर तो पाचार्य कहते हैं कि तिस ही कारण यानी
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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