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________________ २३. श्लोक-पातिक उपज जाते हैं किन्तु वस्तुतः विचारने पर वे संयोग गुण जैसे विशिष्ट हो रहे न्यारे न्यारे माने : गये हैं उसी प्रकार समान प्रानुपूर्वी होते हुये भी सत्ता जाति न्यारी न्यारी माननी पड़ेगी अतः प्रसिद्ध हेत्वाभास हो रहे “ सत्प्रत्ययाविशेष" हेतु से सत्ता का एकपना सिद्ध नहीं होसकता है । समवाय भी एक नहीं सधपाता है। यहाँ तक निर्णय हुआ कि अस्मदादि करके प्रत्यक्षका विषय होने से शब्द परम महान नहीं है, भले ही लहरी प्रवाह से शब्द को हजारों कोस लम्बा मान लिया जाय किन्तु मीमांसको के अभिप्राय अनुसार शब्द का आकाश के समान व्यापक द्रव्यपना नहीं प्रतीत किया जा रहा है। अचान्ये प्राहः-न द्रव्यं शब्दः किं नहि ? गुणः प्रतिसिद्धमानद्रव्यकर्मत्वे मति सरवाद रूपवत । शब्दो न द्रव्यमनिन्यत्वे मन्या पदाद्यचक्षुषप्रत्यक्षवात् । शब्दोन कर्माचाक्षषप्रत्यक्षत्वाद्रमवदिति । तदयुक्त-मीमांसकान् प्रति तेषां वायुनाम्मदाद्य चानुषप्रत्यक्षत्वस्य व्यभिचाराद्वायोग्स्मदादिप्रत्यक्षवात्। अनित्यत्तविशेषणस्य चाप्रमिद्धन्गत् द्रव्य वरिषेगानुपपत्त । कर्मत्वप्रतिषेधनस्याचाक्षुषप्रत्यक्षत्वस्य वायुकर्मणानकान्तिकत्वात् । यहां प्रकरण पाकर कोई दूसरे वैशेषिक विद्वान् अपने मन्तव्य को बहुत बढिया मानते हुये यों कह रहे हैं कि शब्द ( पक्ष ) द्रव्य नहीं है . साध्य )। तो शब्द क्या पदार्थ है ? इसका उत्तर यह है कि शब्द तो गुण है (प्रतिज्ञा ) द्रव्यों और कर्मों से भिन्न होते सन्ते सत्तावाला होने से हेतु ) रूप के समान (अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-सत्तावाले तीन ही द्रव्य, कम, गुण, पदार्थ हैं तिन में से. द्रव्य और कर्म से भिन्नपना यों विशेषण लगा देने पर सविशेषण सत्तावत्व हेतु से शब्द में गुणव की सिद्धि होजाती है । वैशेषिक अपने हेतु के विशेषण को यों अनुमान द्वारा पुष्ट करते हैं, कि शब्द ( पक्ष ) द्रव्य नहीं है, ( साध्य ) अनित्य होते सन्ते अस्मदादिकों के चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय नहीं होने से ( हेतु ) रस के समान ( अन्वयदृष्टान्त )। हम आदि के चक्षुषों द्वारा नहीं जानने योग्य आकाश आदि नित्य द्रव्य हैं, अतः अनित्यत्वे सति इस विशेषण से आकाश, दिक्, काल, आत्मा, मन और पृथिवी आदि चारों धातुओं के परमाणुषों करके सम्भवने योग्य व्यभिचार की निवृत्ति होजाती है, शेष घट प्रादि अनित्य द्रव्यों द्वारा प्रापादन करने योग्य व्यभिचार का निवारण अस्मदादि अचाक्षुषप्रत्यक्षत्व से होजाता है । तथा शब्द ( पक्ष ) कर्म पदार्थ नहीं है, ( साध्य ) क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं है ( हेतु ), रस के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार शब्दका द्रव्यपन और कर्मपन का अभाव साध दिया गया है। प्राचार्य कहते हैं, कि मीमांसकों के प्रति या जैनों के प्रति वह वैशेषिकों का कथन युक्ति रहित है क्योंकि उन मीमांसकों के यहाँ वायु करके अस्मदादि के चाक्षुषप्रत्यक्ष का नहीं गोचरपन हेतु का व्यभिचार प्राता है, वायु का हम आदि की स्पर्शन इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है । वैशेषिकों ने . भी वायु का चक्षुः द्वारा प्रत्यक्ष होना अभीष्ट नहीं किया है, अतः वीजना की वाय, मांधी, श्वास .
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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