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________________ पंचम - अध्याय २३७ सत्ता में परममहत्त्वगुण एकार्थसमवाय सम्बन्ध से पाया भी गया किन्तु आकाश की सत्ता का हम आदि को प्रत्यक्ष नहीं होपाता है, तिस कारण हेतु के नहीं ठहरने से उस आकाश की सत्ता करके व्यभिचार दोष नहीं आया । अव्यापक हो रहे घट, पट, आदि द्रव्यों की या अव्यापी रूप, रस, क्रिया आदि पदार्थों की सत्ता तो वृत्यनियामक हुये एकार्थ समवाय सम्बन्ध से भी परम महान नहीं है । एक बात यह भी है कि सम्पूर्ण द्रव्य अथवा पर्यायों में व्यापरही और एक ही मानी जा रही सत्ता जाति प्रसिद्ध भी नहीं है । देवदत्त, घट, पट, कालागु, आदि में कोई भी एक व्यापक सत्ता की प्रतीति नहीं होती है। केवल अनेक पदार्थों में न्यारी न्यारी वर्त रहीं प्रवान्तरसत्ताओं का कल्पित पिण्ड मान कर गढ़ ली गयी उस महासत्ता का तिस प्रकार उपचार से ही एकपन या व्यापकपन क्वचित् शास्त्र में समझा दिया गया है यदि वास्तविक रूप से उस सत्ता को एक माना जायगा तो वह जगन के सम्पूर्ण पदार्थों - स्वरूप नहीं हो सकेगी जगत का कोई भी एक पदार्थ विचारा जड़ चेतन, विषश्रमृत, परमात्मा अशुद्धात्मा यादि में एक स्वरूप होकर नहीं ठहर सकता है, जड़ या चेतन द्रव्यों के सायान्य गुरण को कहे जा रहे अस्तित्व, वस्तुत्व, आदिक स्वभाव भी प्रत्येक में न्यारे न्यारे हैं । विष अमृत, अग्नि जल, आदि पर्यायों के विवर्तयिता माने गये पुगलों के रूप रस, आदि आदि गुण भी प्रत्येक में अलग अलग हैं किन्तु सत्ता को विश्वरूप माना गया है । " सत्ता सयलपयत्था सविस्सरूवा प्रांत पज्जाया । भगोपादधुवत्था सप्पडिवक्खा हवदि एगा" ( पंचास्तिकाय ) विश्वरूप वही पदार्थ हो सकता है जो सम्पूरण विरुद्ध, अविरुद्ध, पदार्थों में तन्मय होकर प्रोत प्रोत घुस रहा हो । परीक्षा-दृष्टि से विचारने पर निर्णीत हो जाता है कि ऐसा सब में प्रोत पोत घुसने वाला कोई पदार्थ जगत में नहीं है सब को न्यारी न्यारी अनन्तानन्त श्रवान्तर सत्तायें ही संग्रहनय की अपेक्षा महासत्ता नाम को पाजाती हैं जैसे कि न्यारे न्यारे अनेक वृक्षों का एक विशिष्ट सन्निकटपन हो जाने से उपवन या वन यह नाम पड जाता है, अतः वैशेषिकों को वस्तुतः एक ही व्यापक सत्ताजाति का प्राग्रह नहीं करना चाहिये । वैशेषिक कहते हैं " सदिति लिंगाविशेशात् विशेषलिंगाभावाच्चैको भावः " ।। १७ । ( बैशेषिक दर्शन के पहिले अध्याय में द्वितीय आन्हिक का सूत्र है ) तदनुसार घटः सन् है, आत्मा सन् है, रूपं सत् है, क्रिया सती है, इत्यादि सत् सत् इत्याकारक प्रत्ययों में कोई विशेषता नहीं देखी जाती है, इस कारण सत्ता जाति एक ही है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि सत् सत् इन ज्ञानों का सभी प्रकारों से अन्तर रहित होजाना प्रसिद्ध है, जैसे कि पट के साथ साथ घट संयुक्त है. श्रात्मा के साथ कर्म संयुक्त है, अधर्म द्रव्य के साथ धर्मद्रव्य संयुक्त है, प्रकाश का काल के साथ संयोग हो रहा है, इत्यादिक सयुक्तपने को विषय कर रहे ज्ञानों की अविशेषता प्रसिद्ध है अर्थात् स्थूल रूप से उक्त स्थलों पर संयुक्त हैं, संयुक्त हैं, ऐसे एक से ज्ञान 3
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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