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श्लोक-पातिक
करता हुमा नो-इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप लन्धि को पूर्ववृत्ति कर प्राकाश आदि द्रव्यों का अवग्रह आदि मतिज्ञान-स्वरूप उपयोग पहिले ही हो जाता है उसके पश्चात् झट उस मतिज्ञान से श्र तज्ञान प्रवतं जाता है, मतिज्ञान से जाने हुये अर्थ में अन्य विशेषों को जानने के लिये श्र तज्ञान प्रवर्तता है, अतः आकाश, धर्म, आदि को मतिज्ञान कुछ जान लेता है पश्चात् श्र तज्ञान उनका अधिक प्रतिभास कर लेता है "श्र तं मतिपूर्व"
प्रकाश की अवगति में श्रु तज्ञान का पूरा हाथ होते हुये भी कुछ मतिज्ञान का हाथ रह चुका है । मतिज्ञान कितने अंश का परिज्ञायक है ? इसके विवेक को विचक्षण विद्वान ही कर सकते हैं जैसे कि ईहा मतिज्ञान-पूर्वक हुये ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान के विषय में ईहा का हाथ कितना है ? इसका भेद-विज्ञान करना साधारण बुद्धि वाले का कार्य नहीं है । मनःपर्ययज्ञान
और श्रुतज्ञान के पहिले उस विषय के स्वल्प अंशों को जानने वाला मतिज्ञान प्रवर्त जाता है तभी तो इन दो ज्ञानों के प्रथम दर्शन होने की प्रावश्यकता नहीं । विभङ्ग ज्ञान के प्रथम भी दर्शन नहीं होता है, हाँ मतिज्ञान के पहिले महासत्ता का पालोचक दर्शन उपयोग अवश्य हो गया था, प्रतः प्राकाश के कुछ विषय अश का मनःपूर्वक परोक्ष मतिज्ञान होते हुये भी आकाश का मानसप्रत्यक्ष होना स्वीकार नहीं किया गया है, जैसा कि सुख, दुःख, प्रात्मा प्रादि का मन इन्द्रिय से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हुआ इष्ट किया गया है, अतः हमारे हेतु का आकाश से व्यभिचार दोष नहीं लगता है।
अस्मदादिप्रत्यक्षया सत्तयानेकांत इत्यपि न स्यादादिना साम्यते, सत्तायाः सर्वथा परममहत्त्वाभावात् । परममहतो द्रव्यस्य नमसः सत्ता हि मरममहती नामवंगतद्रव्यादिसत्ता । न च नमस; सत्तास्मदादिप्रत्यक्षा ततो न तया व्यभिचारः । न च सकलद्रव्यपर्यायव्यापिन्येकैव सत्ता प्रसिद्धा, तस्यास्तथोपचारतः प्रतिपादनात् । परमार्थतस्तदेकत्वे विश्वरूपत्वविरोधात् । सत्प्रत्ययाविशेषादेकैव सत्तेति चेन्न सर्वथा सत्प्रत्ययाविशेषस्यासिद्धत्वात्
संयुक्तप्रत्ययाविशेषवत ।
___ यदि वैशेषिक हमारे अस्मदादि प्रत्यक्षत्व हेतु का सत्ता जाति करके व्यभिचार उठावें कि द्रव्य, गुण, कमों, में वर्त्त रही सत्ता जाति का हमको प्रत्यक्ष होता है किन्तु वहाँ परम महत्वाभाव यह साध्य तो नहीं है क्योंकि सत्ता जाति सर्वत्र व्याप रही है। प्राचार्य कहते हैं कि स्याद्वादी विद्वान करके यह व्यभिचार भी सहन करने योग्य नहीं है क्योंकि सत्ता जाति के सभी प्रकार परम महापरिमाण-धारीपन का प्रभाव है, एक तो वैसे ही वैशेषिकों ने सत्ता की द्रव्य, गुण, कर्मों, में ही वृत्ति स्वीकार की है, सामान्य, विशेष, समवाय, प्रभाव, इन चार पदार्थों में सत्ता जाति नहीं ठहरती कही है। दूसरे परम महत्व परिमाण नामक गुण तो द्रव्य में ठहर सकता है, जाति में गुणों का निवास नहीं माना गया है। हाँ जिसी प्रकाश में परममहत्वगुण समवाय से रहता है उसी में सत्ता जाति भी समवाय सम्बन्ध से ठहर जाती है, इस कारण,