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पंचम - अध्याय
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सामान्यस्वरूप पदार्थ होसकता है नित्य होकर अनेकों में समवाय सम्बन्ध से जाति ही ठहर सकती है अन्त्यत्व कोई गुण तो नहीं है जैसे कि पृथक्त्व, द्वित्व, आदि गुण हैं अथवा वह अन्त्यत्व कोई कर्मप दार्थ या विशेष पदार्थ, प्रादि स्वरूप भी नहीं है क्योंकि शब्द स्वयं गुरण माना गया है, वैशेषिकों के यहां गुणों में गुरण, क्रिया, विशेष, ये भाव नहीं ठहर पाते हैं " गुणादिनिर्गुणक्रियः " जब कि शब्द स्वयं गुरण है, इस कारण शब्द को उन गुणादिकों के आश्रम होजाने का असम्भव है, हां जाति, समवाय, और प्रभाव ये कुछ नियत पदार्थ शब्द गुरण में प्राश्रित होजाते हैं किन्तु वह अन्तिमपन अथवा अनन्तिमपन धर्म भला जा'त तो नहीं होसकते हैं क्योंकि भले ही लाखों, करोड़ों, अनन्ते भी पदार्थ क्यों न हों उनमें अन्तिम या ग्राद्य एक ही होगा अतः एक व्यक्ति में ही वृत्ति होने के कारण अन्तिम त्वया श्रादिमत्व सामान्य पदार्थ नहीं है " नित्यत्वे सत्यनेकसमवेतं सामान्यं, जाति की अनेक व्यक्तियों में वृत्ति मानी गयी है " व्यक्त रभेदस्तुल्यत्वं संकरोऽथानवस्थिति: । रूपहा निरसम्बन्धो जातिवाधक संग्रहः,, । तभी तो आकाशत्व को जाति नहीं माना है ।
अथैकश्रोतृश्रवण योग्योनेक शब्दोंत्योऽनन्तश्चापर श्रोतृश्रवण योग्योस्तीति मत, ताद्यपि शब्दोंत्यः स्यात् कस्यचिच्छ्रवणयोग्यत्वात् कर्णशष्कुल्यन्तः प्रदिष्टकाः शब्दवत् वर्णघोषद्वा तथा चाद्यः शब्दो न श्रूयते इति सिद्धान्तविरोधः ।
अब इसके पश्चात् वैशेषिकों का यह मन्तव्य है कि एक श्रोता के सुनने योग्य हो रहा शब्द भी एक नहीं है, अनेक हैं प्रत अनेक शब्दों में अन्त्यवन, अनन्त्यपन ये जातियां ठहर जावेंगी इस कारण वह शब्द अन्तिम या अनन्तिम अथवा दूसरे श्रोताओं के सुनने योग्य है, अथवा शब्द के धर्म जाति न सही सखण्डोपाधि अवश्य है ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो आदि में हुआ शब्द भी अन्तिम हो जाओ क्योंकि वह श्रादिम शब्द भी किसी न किसो निकटवर्ती श्रोताके सुनने योग्य तो है ही । जैसे कि कचौड़ी के समान बहिरंग उपकरण को धार रही कर्ण इन्द्रिय के भीतर प्रविष्ट होचुका आकाश यह शब्द आदिम होता हुआ भी अन्तिम है कोई कोई एकान्त में कहा गया शब्द एक ही के कान में घुस जाता है अथवा किसी के कान के समीप मुख लगाकर बड़ेबल से बोला गया घोष प्रात्मक शब्द आद्य होता हा भी अन्त्य है और उस प्रकार होने पर वैशेषिकों के यहाँ प्राद्य शब्द नहीं सुना जाता है, इस सिद्धान्तका विरोध होजावेगा अर्थात् - वैशेषिकों ने अन्तिम शब्दका सुनना ही क्वचित् स्वीकार किया है, जो शब्द जिस व्यक्ति के प्रति अन्तिम होता जाता है यानी उसके कान में लीन हो जाता है वह उसी शब्द को सुन सकता है आदि के शब्द तो शब्दान्तरों के आरम्भक होते जाते हैं, दार्शनिकों के सिद्धान्त भी अनेक अनुभवों के अनुसार विलक्षण होजाते हैं ।
अथ न श्रवणयोग्यत्वादन्त्यत्वं किं तर्हि ? श्रद्यापेक्षया शब्दान्तरानारंभकलापेक्षया चेन्यभिमतिस्तदाद्यस्यत्यत्वं तदस्यस्यानंत्यवं कथमुमपद्यते १ येनैकस्यात्यरू मनत्यत्वं च स्य त् । ततः सूक्तं प्रत्यासन्नत मश्रोतृश्रु तशब्दाच्छन्दांतरस्याप्रादुर्भावादेकदिक्कसप्रणिधिश्रोत पंक्त्या शब्दश्रवणाभावप्रसंग इति ।
पुनः वैशेषिकों का अभिमानपूर्वक यह मन्तव्य होय कि सुनने योग्य होने के कारण उस शब्द का अन्तिमपना नहीं है तो क्या है ? इसका उत्तर हम वैशेषिक यों कहते हैं कि आदि में हुये