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________________ २२८ श्लोक- वार्तिक शब्द उपज रहा है यों फैल रहा शब्द पहिला ही पहिला जहाँ किसीके कान में पड़ेगा वह उसको सुनाई जायगा उससे पिछला शब्द तो आगे देश में चला जायगा अतः आगे वाले श्रोताओं के प्रति वह पहिला पहिला होता हुआ सुनाई पड़ता जायगा। वक्ता श्रोताओं में साधारण रूप से बोला जारहा या टेलीफोन अथवा विना तार का तार आदि द्वारा फेंका गया जो सब से अन्त का शब्द होगा उसको कोई नहीं सुन सकेगा, उत्तरक्षण में शब्द मर ही जायगा । अथ प्रत्यासन्नमश्रोतारं प्रत्यमौ शब्दोंत्यस्तेन श्रयमाणत्वान्न प्रत्यासन्नतरं तेन तस्याश्रवणात् तेन च श्रूयमाणस्तमेव प्रत्यंतो न तु प्रत्यासन्नं प्रति तत एव सोपि तमेव प्रत्यन्यो न दूरश्रोतारं प्रतीतिमतिः, सावि न श्रेयसी, शब्दस्यैकस्यात्यत्वानंन्यत्वविरोधात्तस्य निरंशत्बोपगमात् । अब यदि स्याद्वाद सिद्धान्त का आश्रय लेकर वैशेषिकों का यों मन्तव्य होगया होय कि प्रत्यधिक निकटवर्ती श्रोता के प्रति वह मन्द शब्द बोला गया अन्तिम कहा जायगा क्योंकि धीरे से कहा गया। शब्द उस करके सुना जा रहा है किन्तु कुछ थोड़े निकटवर्ती हो रहे पुरुष के प्रति वह मन्द शब्द अन्तिम नहीं है क्योंकि उस पुरुष ने उस शब्द को नहीं सुना है तथा उस थोडे निकटवर्ती पुरुष ने भी जिस कुछ तीब्र शब्द को सुन पाया है वह कुछ तीब्र शब्द उस कुछ अन्तर लेकर बैठे हुये निकटवर्ती पुरुष के प्रति तो अन्तिम है किन्तु उससे अधिक अन्तर पर बैठे हये निकटवर्ती पुरुष के प्रति अन्तिम नहीं है क्योंकि इसने उस शब्द को सुना नहीं है तिस ही कारण से यानी उस करके सुना जा रहा होने से वह निकटवर्ती पुरुष के लिये कहा गया शब्द उस ही के प्रति अन्तिम है, दूरवर्ती श्रोता के प्रति अन्तिम नहीं है । भावार्थ - एक हाथ प्रन्तराल देकर बैठे हुये पुरुष के प्रति जो वक्ता का शब्द अन्तिम है वह चार हाथ दूर बैठे हये श्रोता के लिये अन्तिम नहीं है और जो चार हाथ दूर बैठेहुये श्रोता के लिये अन्तिम है वह दस हाथ दूर वर्त रहे श्रोता के लिये चरम नहीं है, दस हाथ दूर के श्रोता द्वारा अन्तिम सना जा रहा व्याख्याता का शब्द भी सौ हाथ दूर बैठे हुये श्रोता के प्रति अन्तिम नहीं है। वैशेषिकों की ऐसी बुद्धि होजाने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि वह बुद्धि भी श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि एकान्तवादी वैशेषिकों के सिद्धान्त अनुसार एक ही शब्द के अन्तिमपन और अनन्तिमपन का विरोध है क्योंकि वैशेषिकोंने शब्दको अशों या स्वभावोंसे रहित स्वीकार किया है, यों श्रादिम शब्दके सुने जानेका सिद्धान्त विगड़ता है । अथ तस्यापि धर्मभेदोपगमाददोषः स तर्हि धर्मशब्दस्य जातिरेव भवितुमर्हति न गुणादिः शब्दस्य स्वयं गुणत्वात् तदाश्रयत्वासंभवात् । न च तदत्यत्वं तदनंत्यत्वं वा जातिरेकव्यक्तिनिष्ठत्वात् जातेस्त्वनेक व्यक्तिवृत्तित्वात् । इसके अनन्तर वैशेषिक यदि यों कहे कि हम शब्द नामक धर्मी का भेद स्वीकार नहीं करते हैं हाँ शब्द के तीव्रपन, मन्दपन, मध्यमपन, श्रादि धर्मभेदों को मान लेते हैं, अतः हमारे ऊपर कोई दोष नहीं आता है । इस पर ग्रन्थकार प्रश्न उठाते हैं कि शब्द का वह अन्तिमपन या बाद्यपन धर्म
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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