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पंचम - प्रध्याय
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ग्रन्थकार कहते हैं कि वह कोई वैशेषिक भी विचारे जा चुके वचनां का बोलने वाला नहीं है जब कि शब्द को आकाश का गुण स्वीकार करने पर भी जैनों के ऊपर कहे जा चुके दोष उन्हीं वैशेषिकों के ऊपर समान रूप से लागू होजाते हैं इसी बात को स्पष्टरूप से यों समझिये कि श्राप वैशेषिकों के यहाँ शख और मुख के संयोग से आकाश में उपज रहा शब्द क्या एक ही उत्प न्न होगा ? अथवा क्या अनेक शब्द उपज जावेंगे ? बताओ । पहिला पक्ष ग्रहण करनेपर उस एक ही शब्द कानान दिशानों में विराज रहे अनेक श्रोताश्रों करके भला कैसे श्रवरण हो सकता है ? एक ही गूर को भला सौ श्रादमी युगपत् कैसे खांय ? । वैशेषिकों ने जैसे कहा था उसी प्रकार हम भी कहते हैं कि एक ही शब्द का सम्पूर्ण दिशाओं में वृत्ति होजाने के लिये एक ही समय गमन करने का असम्भव है
अब द्वितीय कल्पना अनुसार यदि वैशेषिक यों कहें कि मुख से शंख को शब्द उपज जाते हैं तब तो शब्दों के कोलाहल के श्रवरण का प्रसंग समान रूप से है जैसा कि आपने हमारे ऊपर उठाया था। दो सौ, चार सौ गज दूर से मेला या हाट का शब्द जैसे कोलाहल रूप से सुना जाता है उसी प्रकार एक ही वार में अनेक शब्दों की उत्पत्ति होजाने से कोला --- हल सुनाई पड़ेगा तथा सम्पूर्ण दशों दिशाओंों में बैठे हुये प्रशेष श्रोताश्रों करके सुने जा रहे शब्द के उतने परिमारण को लिये हुये प्रकार भिन्न भिन्न सिद्ध होजायेंगे । ( प्रकारे घा ) ।
बजाने पर अनेक उठाया जा सकता
यदि पुनरेकेकस्यैव शब्दस्यैकैकश्रोतृग्राह्यस्वभावतयोत्पत्तेर्न समानशब्द कलकलतिरिति मतं, तदैक दिक्केषु समानप्रणिधिषु श्रोतृषु प्रत्यासन्नतम श्रोतृश्रुतस्य शब्दस्यांत्य त्वाच्छन्दांतरारंभकत्व विरोधाच्छेषश्रोतॄणां तद्ब्रवणं न स्यात् । तस्यापरशब्दारंभकत्वे चत्यित्वाव्यवस्थितिः । प्रत्यासन्नत मश्रोतृश्रवणमपि न भवत् तद्भावे चाद्य एवं शब्दः श्रूयते नांत्य इति सिद्धातव्याघातः ।
यदि फिर हमारे ऊपर किये गये आपादन के समान वैशेषिकों का यह मन्तव्य होय कि एक एक ही शब्द की एक एक श्रोता द्वारा ग्रहण करने योग्य स्वभाव रूप से उत्पत्ति होती है अतः अनेक समान शब्दों का कलकल रूप से सुनना नहीं होता है । तब तो हम जैन भी कह देंगे कि एक दिशा में स्थितहो रहे समान निकटता वाले श्रोताओं में भी अतीव निकट-वर्ती श्रोता द्वारा सुना जा चुका शब्द तो अन्तिम है, अन्तिम शब्द को अन्य शब्दों के प्रारम्भ करने का विरोध है जैसे कि चरम अव यवी पुन: अन्य अवयवी का उत्पादक नहीं माना गया है, इस कारण शेष श्रोताओं को उस मन्द शब्द का श्रमण नहीं हो सकेगा । यदि उस शब्द को अन्य उत्तरोत्तर शब्दों का प्रारम्भक माना जायगा तो उस शब्द के अन्तिमपन की व्यवस्था नहीं होसकेगी और अधिक निकटवर्ती श्रोता को भी उस शब्द का सुनना नहीं होसकेगा। टेलीफोन या टेलीग्राफद्वारा मन्द उच्चारित शब्द भी सैकड़ों हजारों कोस चला जाता है फिर भी अन्तिम जो कोई शब्द होगा वह पुनः शब्द का उत्पादक नहीं माना गया है। यदि वैशेषिक प्रतीव निकटवर्ती श्रोता को उस अन्तिम भी शब्द का सुनाई होजाना मानेंगे तो आदि में उपजा हुआा ही शब्द सुना जाता है अन्तिम शब्द नहीं सुना जाता है इस सिद्धान्त का व्याघात होजायगा । अर्थात् सरोवर के मध्य में डेल डाल देने से जैसे सव ओर को जल की लहरें उठतीं हुई फैल जाती हैं उसी प्रकार वीची तरंग - न्याय करके अथवा कदम्ब - गोलक न्यायसे