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मोक-पातिक उपज रहे अन्य अन्य अगले अगले शब्द ही उन श्रोताओं करके सुने जाते हैं । यों जैनों के कहने पर तब तो हम वैशेषिक पूछते हैं, कि वह उत्तरोत्तर उपज रहा शब्द क्या वक्ता के व्यापार से ही उत्पन्न होगा? अथवा क्या पहिले पहिले श्रोताओं द्वारा सूने जा चूके शब्द से उपजेगा? बतायो, जैनों द्वारा प्रथम पक्ष ग्रहण करने पर तो हम वैशेषिक कहते हैं, कि उत्तरोत्तर देश-वर्ती श्रोताओं करके सुना जा रहा वह शब्द भला उन अाकाश श्रेणियों पर बैठे हुये अन्य श्रोताओं करके भी पहिले पहिले शब्दों के साथ क्यों नहीं सुना जाता है ? यह बहुत बड़ा प्राश्चर्य है।
एक बात यह भी है कि इस प्रकार वक्ता के व्यापार ही से शब्द की उत्पत्ति मानने पर जैनों का यह सिद्धान्त कि शब्द कारण-गुण-पूर्वक है, सिद्ध नहीं होपायेगा अर्थात्-वीचीतरंग न्याय से यदि पूर्व शब्द परिणत पुद्गलों करके ही अन्य शब्दों की उत्पत्ति मानी जाय तब तो कारण गुण पूर्वक शब्द सध पायेगा, अन्य प्रकारों से नहीं। यदि जैन दूसरा विकल्प लेवें कि श्रोतामों के पूर्व पूर्व शब्दों से उत्तर शब्दों की उत्पत्ति होती है. उस विकल्प में यहां वहां निकट स्थित होरहे श्रोताओं करके सुने गये शब्द से भी पुनः अन्य शब्दों की उत्पत्ति क्यों नहीं होजावेगी ? उन शब्दों के उपादान कारण माने जा रहे पुद्गल स्कन्धों का सर्वत्र सुलभतया सद्भाव पाया जाता है। यदि स्याद्वादी यों कहैं कि शब्दों के उत्पादक उपादान कारण पुद्गल स्कन्ध तो हैं किन्तु उस शब्द का सहकारी कारण होरहा वक्ता के व्यापार से उत्पन्न हुये विशेष वायु का वहां अभाव है। अतः मन्द मन्द शब्द से दूर देश तक अन्य शब्दों की उत्पत्ति नहीं होसकी है, उपादान कारण मिट्टी तो खेतों में असंख्यों मन पड़ी हई है। किन्तु थोड़े से वीज या ऋतु इन सहकारी कारणों के नहीं मिलने से हजारों, लाखों, मन अन्न नहीं उपज पाता है, यों जैन कहैं तब तो शब्द वायु से निर्मित हुमा कह दिया जानो उसके उपादानरूप से कल्पित किये जा रहे दूसरे पुद्गल विशेषों करके क्या करने योग्य कार्य शेष रह जाता है ? ऐसा असत् पुद्गल तो केवल प्रमाणों द्वारा नहीं देखे जा चुके पदार्थों की कल्पना का ही हेतु है, शब्द का उपादान माना गया पुद्गल कोई वस्तुभूत नहीं है । अवस्तु से क्या किया जासकता है ?
इस पर जैन यों इष्ट आपत्ति करें कि हम तिस प्रकार शब्द को वायु से उत्पन्न हुआ स्वीकार कर लेंगे वैशेषिकों के यहां माना गया आकाश का गुण शब्द नहीं होना चाहिये, यों मानने पर तो उस स्वीकृति से स्याद्वादी विद्वान के यहां प्रारहे अपने मत से विरोध का किसी भी प्रकार से निवारण नहीं किया जा सकता है। क्योंकि स्याद्वादियों ने शब्द को केवल वायुनिर्मित नहीं मान कर भाषावर्गणा या शब्दयोग्य पुदगल स्कन्धों से उत्पन्न हुआ माना है बांसरी, बैन, पीपनी, हारमोनियम, में यद्यपि विशिष्ट छेदों में से निकल रही वायु ही शब्द स्वरूप होजाती है। किन्तु जैन मत में वहाँ भी तिस जाति के पुद्गल स्कन्धों की ही शब्द परिणति हुई मानी जाती है, इस प्रकार ननु च से प्रारम्भ कर यहां तक कोई वैशेषिक पण्डित कह रहा है।
सोप्यनालोचितवचनः, शब्दस्य गगनगुणत्वेपि प्रतिपादितदोषस्य समानत्वात् । तथाहि-शंखमुखसंयोगादाकाशे शब्दः प्रादुर्भ न्नेक एव प्रादुर्भवदनेको वा ? प्रथमपने कुतस्तस्य नानादिक्कैः श्रोतभिः श्रवणं ? सकृत्सर्वदिक्कगगनासंभवात्। अथानेकस्तदा शब्दकोलाहलश्रुतिप्रसंगः समानः शब्दस्यानं कस्य सकृदुत्पः, सर्वदिक्काशेषश्रोतृश्रयमाणस्य तावद्धा मेदसिद्धः।