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. श्लोक - वार्तिक
शब्द की अपेक्षा करके और अन्य शब्दों का प्रारम्भक नहीं होने की अपेक्षा करके उस शब्द का अन्तिमपना व्यवस्थित है । प्राचार्य कहते हैं कि तब तो आदिम शब्द का अन्तिमपना और उस अन्तिम शब्द का अन्तिमपना भला किस प्रकार युक्तियों से घटित हो सकता है, जिससे कि एक ही शब्द का अन्तिमपना और अनन्तिमपना व्यवस्थित होसके, तिसकारण हमने बहत अच्छा कहा था कि अत्यधिक निकट बैठे हुये श्रोता के द्वारा सुने गये मन्द शब्द से अन्य शब्दों का प्रादुर्भाव नहीं होता है, अतः एकदिशा में बैठे हुये निकट निकट वर्ती श्रोताओं की पंक्ति करके शब्द के सुने जाने के अभाव का प्रसंग उठाना यों ठीक है ।
स्यान्मतं, शंखमुखसंयोगादाकाशे वहवः शब्दाः समानाः प्रत्याकाशप्रदेशकदंबके शंखादुपजायंते ते च पवनप्रेरिततरंगात्मवच्छन्द तिरानगरभते, ततो भिन्नदिक्कस प्रणिधिश्रोतृपंक्तेरिवैकदिक्कसप्रणिधिश्रोतृपंक्तेरपि प्रतिनियत संततिपतितस्यैव शब्दम्य श्रवण मे श्रोतुर्न पुनरन्यस्य यतो निगदितदोषः स्यादिति तदप्यनाला चिताभिधानं शब्दसंततेः सर्वतो - पर्यन्ततापतेः । समवायिकारणस्य गगनस्यासमवायिकारणस्य च शब्दस्य शब्दांत व चहेतोः सद्भावात् । शंखमुखसंयोग जपवनाकाशसंयोगस्य शब्दकारणस्याभावान्नां याभिमतः शब्दः शब्दान्तरमारभते यतः शब्दसंत तेरपर्यन्तता स्यादिति चेत्, तर्हि वाय यिः शब्दोस्तु किमाक शेन समवायिना कल्पतेनेति मतान्तरं स्यात् । शब्दाच्छन्दोम्पत्तिर्न स्यात्तस्यापि नसंयोजत्वात् ।
यदि वैशेषिकों का यह मन्तव्य होय कि शंख और मुख का संयोग होजाने से समवायिकारण श्राकाश में बहुत से समान शब्द श्राकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर सरसों या कदम्बकपुष्प की प्राकृति अनुसार शंख से उपज जाते हैं और वे शब्द तो पवन से प्रेरीगयों तरंगों के समान या दूसरी दूरी तरंगों के समान शब्दान्तरों की उत्पत्ति करते चले जाते हैं तिस कारण भिन्न भिन्न दिशाओं में वर्त रहे समाननिकटता वाले श्रोतानों की पंक्ति के समान एक दिशा में बैठे हुये सन्निकट श्रोतों की पंक्ति को भी प्रतिनियत होरही शब्द धारा की संतति में पड़े हुये ही शब्द का सुनना एक ही श्रोता को होसकता है, किन्तु फिर दूसरे श्रोतानों को वह शब्द सुनाई नहीं पड़ता है, जिससे कि जैनों के द्वारा पूर्व में कहा गया दोष हम वैशेषिकों के ऊपर लग बैठे ।
श्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वैशेषिकों का वह कथन भी नहीं विचार कर बकदेना मात्र है क्योंकि यों तो शब्द की संततिधारा 'सब ओर से पर्यन्तपने का प्रसंग आता है। यानी एक शब्द की धारा लाखों, करोड़ों, अनन्ते, योजनों तक चली जायगी जब कि अन्य शब्दों की उत्पत्ति के कारण माने जा रहे समवायिकारण आकाश और श्रसमवायिकारण शब्द का सर्वत्र सब ओर सद्भाव पाया जाता है। यदि पहिले जैनों द्वारा कराये गये निवारण समान वैशेषिक शब्द के अनन्तपन का यों निवारण करें कि शब्द का कारण आकाश भले ही सर्वत्र व्यापक है, और असमवायिकारण शब्द भी प्रत्यधिक दूर तक शब्दों को उपजाने के लिये सन्नद्ध है । किन्तु शंख और मुख के संयोग से उपज रही षा के साथ होरहा प्राकाश संयोग भी शब्द का प्रकृष्ट कारण माना गया है, उस कारण के नहीं होने