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________________ २२० श्लोक-धातिक नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती है । जल में अग्नि के निमित्त से प्रागयी उष्णता घण्टे दो घण्टे पीछे विघट जाती है । वैशेषिक जो ऐसा मानते हैं कि उष्ण जल में अग्नित व बुम पाता है। उस अग्नि का ही उष्ण स्पर्श प्रतीत होता है, अग्नि के उद्भून उष्ण स्पर्श से जल की गांठ का शोतस्पर्श छिप जाता है, यह वैशेषिकों का सिद्धान्त असत्य है । वास्तविक सिद्धान्त यह है कि जल का शीत स्पश ही अग्नि का निमित्त पाकर उष्ण स्पर्श होकर बदल गया है, पानी जल पुद्गल के स्पर्श गुण का पहिले शीत परिणाम था अग्नि को निमित्त पाकर अब उस स्पशं गुरु की उष्ण पर्याय उपज गयी है जैसे कि भिन्न भिन्न वृक्षों को निमित्त पाकर उपादान हो रहे मेघ जल का उन उन वृक्षों के रस स्वरूप परिणाम होजाता है। राजगृहीके कुण्डोंका जल प्रथम से ही उष्ण है, शीतकाल में अन्य कूपोंका जल भी कुछ उष्ण रहता है हां पीछे वायु, वहिभूमि, को निमित्त पाकर शीतल हो जाता है। तथा कोई नैमित्तिक कार्य तो नैमित्तिकके नष्ट होजाने पर झट नष्ट हो जाते हैं, जैसे कि बिजलीका प्रकाश है। दपण स्वच्छ जल,चांदी का थाल, आदि में पड़ रही छाया, वर्ण प्राकृति आदि स्वरूप से परिणमी है किन्तु घाम, चांदनी, प्रादि के अवसर पर वक्ष, मनुष्य, प्रादि की पड़ रही छाया तो केवल प्रतिविम्ब स्वरूप है वस्त्र के अनेक परत अथवा कई कागजों की तह के भीतर ऐक्सरे" यंत्र के द्वारा प्रकाश के पहुँचा देने पर उस तहों के भीतर रखे हुये पदार्थ का प्रतिविम्ब पड़ जाता है अतः छाया का लक्षण उचित है । प्रातप तो उष्ण प्रकाश स्वरूप है, तथा चन्द्र, पटवोजना, पन्ना आदि का अनुष्णप्रकाश तो पुद्गल की उद्योत पर्याय है। अर्थात्-" मूलुण्हपहा अग्गी पादावो होदि उण्डसहियपहा। प्राइच्चे तेरिच्छे उपहरणपहा ह उज्जोप्रो" ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड ) इस गाथा अनुसार प्रातप का लक्षण तो मूल में अनुष्ण और प्रभा में उष्ण होरहे पदार्थ का प्रकाश स्वरूप किया गया है, और मूल में अनुष्ण होते हुये अनुष्ण प्रभा के उत्पादक पदार्थ का प्रकाश उद्योत है, सूर्य का विमान अनुष्ण है वह उष्ण प्रातप का निमित्त होजाता है। जैसे कि मूल में शीतल होरही पानी की वर्फ उदर में दाह को बढ़ा देती है, लाल वस्त्र मांखों में उष्णता का सम्पादक है, अनुष्ण होरहा मकरध्वज या अभ्रक भस्म रोगी के उदर में प्राग फूक देता है । इत्यादि दृष्टान्तों से निमित्तों की प्रचित्य शक्तियों का प्रभाव प्रकट होरहा है। यो ये शब्द, बन्ध, मादिक पुद्गल परिणाम स्वरूप से और भेदों से भले प्रकार प्रसिद्ध ही हैं, विज्ञान भी इस सिद्धान्त का परिपूर्ण रीत्या पोषक है। कुतः पुनः पुद्गलाः शब्दादिमन्तः सिद्धा इत्याह । कोई शिष्य पूछता है कि ये पुद्गल फिर किस युक्ति से शन्द प्रादि पर्यायों वाले सिद्ध हैं ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अगली वात्तिक द्वारा समाधान को कहते हैं। प्रोक्ताः शब्दादिमन्तस्तु पुद्गलाः स्कंधभेदतः। तथा प्रमाणसदभावादन्यथातदभावतः ॥१॥ अणुस्वरूप पुद्गल तो केवल अनुजीवी गुण, प्रतिजीवीगुण, सप्तभंगी-प्रात्मक अनेक स्वभाव तथा इतर धर्मों को धार रहे हैं किन्तु स्कन्ध नामक भेदों से प्रसिद्ध होरहे स्थूल पुद्गल ही शब्द आदि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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