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पंचम-अध्याय
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विकारों वाले अच्छे कहे जाचुके हैं क्योंकि तिस प्रकार शब्द आदि पर्याय वाले पुदगलों के साधक प्रमारणों का सद्भाव है। अन्यथा उन शब्द प्रादिकों का अभाव होजावेगा अथवा पुद्गल की पर्याय नहीं ज्ञापन कर शब्द आदिकों को दूसरे प्रकार साधने वाले प्रमाणों का अभाव है। अर्थात-जैसे वैशेषिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। कोई बंध को संयोग विशेष स्वीकार करते हैं, स्थूलता, सूक्ष्मता, तो परिमाणत्व की व्याप्य जातियां हैं। प्राकृति भी परिमाण विशेष है, भेद को विभाग या ध्वंस में गर्भित कर लेते हैं । तेजोद्रव्य का प्रभाव स्वरूप अन्धकार माना गया है। प्रातप और उद्योत को दरवर्ती सर्य, चन्द्रमा, पटवीजना, के निमित्त से यहां ही के फैले हये पूदगलों का विकार नहीं मानकर सूर्य या चन्द्रमा की चली प्राई किरणों स्वरूप अभीष्ट किया गया है जो कि तेजस या पार्थिव होसकेंगी किन्तु यह उन पण्डितों का मन्तव्य प्रामाणिक है ।
न हि परमाणवः शब्दादिमन्न: सन्ति विरोधात् कंधम्या शब्दादिमत्तया प्रतीतेः । शब्दस्या काशगुणत्वान्न तद्वान् पुद्गलम्कंच इत्येके, तस्यामूतद्रव्यन्वादित्यन्ये । तान् प्रत्याह ।
परमाणयें तो शब्द आदि पर्यायों के धारी नहीं हैं क्योंकि विरोध प्राता है देखिये शब्द. बंध, प्रादिक परिणतियों का हम, तुम, प्रादि को वहिरंग इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो जाता है सक्ष्म परमाण प्रतीन्द्रिय है यदि परमाणु के ये शब्द आदि परिणाम होते तो छद्मस्थ जीवों को इनका इन्द्रियप्रत्यक्ष ही नहीं हो पाता। हाँ अन्तिम सीमा को प्राप्त होरही सूक्ष्मता भले ही परमाणु में पायी जाय यदि एक परमाणु का दूसरी परमाणु के साथ बध होगा तो वह बन्ध पर्याय द्वपणूक स्कन्ध की समझी जायगी। परमाणुत्रों का संयोग कहा जा सकता है जो कि अवद्ध पुद्गल परमाणुनोंमें, कालाणुपों में, धर्म अधर्म में भी पाया जाता है, अतः सिद्ध है कि शब्द, बध आदि विकारों से सहितपने करके स्कन्ध की ही प्रतीति होरही है। यहाँ कोई एक पण्डित यों आक्षेप कर रहे हैं कि आकाश द्रव्य का गुण शब्द है अतः शब्दवान् प्राकाश कहा जा सकता है, उस शब्दवाला पुद्गल स्कन्ध नहीं है तथा अन्य कोई मीमांसक पण्डित यों कह रहे हैं कि वह शब्द द्रव्य तो है किन्तु स्पर्श आदि या परिच्छिन्न परिमाण नहीं होने के कारण वह शब्द अमूर्त द्रव्य है और भी कई-पण्डितों की अनेक विपत्तिपक्तियां हैं। उन पण्डितों के प्रति ग्रन्थकार महाराज अग्रिम-वात्तिकों द्वारा समाधान कहते हैं। .
न शब्दः खगुणो वाह्यकरणज्ञानगोचरः। सिद्धो गंधादिवन्नैव सोमूर्तद्रव्यमप्यतः ॥२॥
शब्द आकाश का गुण नहीं सिद्ध हो पाता है क्योंकि वह वहिरंग इन्द्रियों से जन्य हये ज्ञान का विशेष होरहा है जैसे कि बहिरंग इन्द्रिय प्रत्यक्षों के विषय होरहे गन्ध आदिक पदार्थ आकाश के गुण नहीं हैं अर्थात्-जब कि आकाश अत्यन्त परोक्ष पदाथ है तो उसके गुणों का इन्द्रियप्रत्यक्ष कथमपि नहीं होसकता है, केवलज्ञान या विशिष्ट श्रतज्ञान के अतिरित्त सर्वावधि और विपलमति मनः पर्यय ज्ञानों की भी अरूपी आकाश या उसके ततोऽपि अधिक सूक्ष्म गुणों में प्रवृत्ति नहीं है फिर वहिरिन्द्रिय प्रत्यक्ष का यहां क्या मूल्य होसकता है ? तथा इस ही कारण से यानी वहिरंग इन्द्रियों का विषय होने से वह शब्द अमूर्त द्रव्य भी नहीं है मूर्त द्रव्य का विवर्त ही वहिरंग इन्द्रियों से जाना जा सकता है।