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________________ पंचम-प्रध्याय २१६ हीरा को घाम में रख देने से अथवा प्रकाश में कांच या हीरा को आंख के पास लगा कर पार दृष्टि बनने पर कई रंग की किरणें पड़ती दीखती हैं, निमित्त, शक्ति अचित्य है , अभव्य मुनियों के उपदेश से भी असंख्य जीवों ने मुक्ति प्राप्त की है। पीली हल्दी को शुक्ल चूना लाल कर देता है, जल अमृत है और घृत भी अमृत है किन्तु दोनोंको कई बार घोंट देने पर उनमें विष शक्ति उपज जाती है एक ही पदार्थ किसी को हानिकर होता हुआ दूसरे को लाभकर हाजाता है । अनेक धातुयें कांच में अपने रंग से न्यारी जाति के रंगों को उपजा देती हैं, कसैली हरड़ खा चुकने पर पीया हुआ जल अधिक मीठा लगने लगता है, शुक्ल वर्ण सूर्य या हीरा में कोई पांच या सात रगों का सम्मेलन नहीं है। तथा दूसरा प्रयोग-जन्य बन्ध तो फिर सादि ही है, आत्मा का मन, वचन, कायों के साथ सयोग होना रूप पर्याय से उपज रहा वह आदिमान् ही होसकता है। सौम्यं द्विविधमत्यमापेक्षिकं च । तथा स्थौल्य संस्थानमित्थंलक्षणं चतुरस्रादिकमनित्थंलक्षणं च अनियताकारं । भेदः षोढा उत्करश्चूर्णः खण्डश्चूर्णिका प्रतराणुचटनमिति । तमो दृष्टिप्रतिबंधकारणं केषांचित् । छाया प्रकाशावरण । आतप उष्णप्रकाशलक्षणः । उद्योतश्चंद्रादिप्रकाशोनुष्णः । त एते शब्दादयः स्वरूपतो भेदतश्च सुप्रसिद्धा एव । ___ सूक्ष्मपना परिणाम तो अन्त में होने वाला और अपेक्षा से होने वाला यों दो प्रकार है। उमी प्रकार अन्त में होने वाला और अपेक्षा से होने वाला स्थूलपन भी दो प्रकार समझ लेना चाहिये संस्थान नामक पुद्गल परिणति तो एक इस प्रकार नियत आकार स्वरूप है और दूसरी नहीं नियत होरहे आकार स्वरूप है । चौकोर, गोल, तिकोना, लम्बा चौकोर, धन चौकोर, अण्डाकार आदि संस्थान तो इत्थंलक्षण हैं, इनसे अन्य बादलों, वायुनों, प्रादि का आकार अनित्थं-लक्षण है। पुद्गल की भेद नामक पर्याय तो उत्कर, चरण. खण्ड, चरिणका, प्रतर, अणुचटन, इन भेदों से करोंत (पारा । वरमा प्रादि करके काठ, लोहा, चांदी, प्रादि का उत्कर नामक भेदन किया जाता है, जौ. गेंहूँ, आदि का सतुआ, चून आदि स्वरूप से भिदना तो चूर्ण है, घट आदिकों के टुकड़े, कपाल ठिकुच्ची, आदि खण्ड कहे जाते हैं। उड़द, मूग, आदि के टुकड़े चुनी कही जाती है, मेघपटल, आदि के छिन्न, भिन्न, होजाने पर किये गये टुकड़े प्रतर हैं, संतप्त लोह-पिण्ड आदि को हथौड़ा, घन, आदि करके ताड़न करने पर जो फुलिंगा उछलते हैं, वह अणुचटन नामका भेद होना है, यों भेद के छः विकल्प हैं। पुद्गल की अन्धकार नामक पर्याय तो किन्हीं दिवाचर जोवों के देखने का प्रतिबन्धक हेतु है । अर्थात्-बिल्ली, सिंह, कुत्ता उल्लू, चमगादर आदि रात्रिंचर जीवों की दृष्टि को अन्धकार नहीं रोक पाता है, हां मनुष्य, कबूतर, चिड़िया आदि के चाक्षुष प्रत्यक्षों को अन्धकार रोकदेता है । प्रकाश को रोकने वाले पदार्थों के निमित्त से पुद्गल की छाया नामक पर्याय उपज जाती है। भावार्थ-जगत् में सर्वत्र पुद्गल स्कन्ध भरे हुये हैं। सूर्यका प्रकाश होजाने पर वे ही पुद्गल जैसे आतप रूप परिणम जाते हैं । चन्द्रमा का निमित्त पाकर उद्योत स्वरूप चमकीले परिणम जाते हैं। उसी प्रकार प्रकाशक पदार्थों का प्रावरण होजाने पर वे पुद्गल स्कन्ध ही काले काले अन्धकार या स्वल्प काली छाया अथवा अन्य जाति के प्रतिविम्ब स्वरूप परिणम जाते हैं । निमित्त, नैमित्तिक, कई प्रकार के होते हैं, अग्नि को निमित्त पाकर हुयी काली ईट को लाल ईट रूप पर्याय तो निमित्त के
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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