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श्लोक-वार्तिफ
साध्याविनाभाव नियम निश्चयात् कस्यचित्प्रयोजकत्वे प्रकृतहेतोस्तत एव प्रयोजकत्वमस्तु । पुद्गलद्रव्यार्यायत्वाभावे क्षित्यादीनां स्पर्शवच्चाभावनियम निश्चयात् ।
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यहाँ कोई वैशेषिक आक्षेप करता है कि अन्वयदृष्टान्त नहीं मिलनेके कारण जैनोंका स्पर्शादिमत्व हेतु अपने साध्य किये जा रहे पुद्गल द्रव्य की पर्याय होने को नहीं साध सकता है, अतः इस साध्य का ज्ञप्तिकारण नहीं है अन्वयदृष्टान्त में साध्य के साथ जिनकी व्याप्ति ग्रहण करली जाती है, हेतु अपने नियत साध्य के गमक होते हैं ।
अब आचार्य कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो प्रमेयत्व आदि केवलान्वयी या अन्वयव्यतिरेकी धूम आदि हेतु भले ही ज्ञापक होजांय किन्तु "जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्वात् लोष्ठवत्" "पृथिवी इतरजलादित्रयोदशभ्यो भिद्यते गन्धवत्वात् जलादिवत्" इत्यादिसम्पूर्ण व्यतिरेकी हेतुत्रों की प्रयोजकता के रहितपन को प्रसंग प्रावेगा । नैयायिक या वैशेषिकों ने त्रैविध्यमनुमानस्य केवलान्वयिभेदतः, द्वौ विध्यं तु भवेद् व्याप्तेरन्वयभ्यतिरेकतः । अन्वयव्याप्तिरुक्त व व्यतिरेकादथोच्यते" यों कह कर केवलव्यतिरेको लिंग को इष्ट किया है। यदि साध्य के साथ अविनाभाव स्वरूप नियम का निश्चय हो रहने से किसी भी चाहे जिस केवल व्यतिरेकी हेतु को साध्य का प्रयोजक मान लिया जायगा तब तो तिस ही कारण यानी साध्यके साथ अपनी प्रत्यथानुपपत्ति का निश्चय होजाने से प्रकररणप्राप्त स्पर्शादिमत्व हेतुका भी प्रयाजकपना स्वीकार कर लिया जाम्रो, कारण कि साध्य हो रहे पुद्गल द्रव्य की पर्यायपन का अभाव होने पर पृथिवी प्रादिकों को स्परांसहितता के प्रभाव रूप नियम का निश्चय हो रहा है " साध्याभावे साधनाभावो व्यतिरेकः " ।
एतेन सर्वप्रमाणनिवृत्तिरनुपलब्धिरसिद्धा न तोयादिषु गवाद्यभावसाधिनीत्युक्तं वेदितव्यं प्रवचनस्यानुमानस्य च तद्भावावेदिनः प्रवृत्तेः ।
इस सूत्र की दूसरी वार्तिक का विवरण प्रारम्भ करते हुये दो विकल्प उठाये गये थे कि यह अनुपलब्धि क्या प्रत्यक्ष प्रमाण की निवृत्ति है ? अथवा क्या सम्पूर्ण प्रमारणों की निवृत्ति स्वरूप है । पहिले विकल्प का अच्छा विचार कर दिया गया है, अब दूसरे विकल्प अनुसार ग्रन्थकार कहते हैं कि सम्पूर्ण प्रमाणों को निवृत्ति होजाना स्वरूप अनुपलब्धि तो असिद्ध ही है । नैयायिकों का अनुपलब्धि हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है, जब कि अनुमान प्रमाण या आगम प्रमारण ही जल आदि में गन्ध आदि के साधक विद्यमान हैं । प्रत: जल आदि में गन्ध के प्रभाव को साधने वाली वह सर्व प्रमाण की निवृति सिद्ध नहीं हो सकती है । यों यह दूसरा विकल्प भी इस उक्त कथन करके कह दिया गया समझ लेना चाहिये क्योंकि जल आदि में उन गन्ध आदि के सद्भाव को निवेदन कर रहे श्रागम प्रमाण अनुमान प्रमाण की प्रवृति होरही है ।
अब पुद्गलों के सम्पूर्ण विशेष परिज्ञान के होचुकने पर भी पुद्गलों के निरूपण विकारों का परिज्ञान कराने के लिये सुत्रकार भगले सूत्र को कहते हैं ।
कुछ
शेष रहे