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पंचम-अध्याय
यदि वैशेषिक या नैयायिक यों कहें कि जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्त पागम का प्रमाणपन सिद्ध नहीं होसका । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना चाहिये क्योंकि सत्यबात यह है कि उस जिनागम को ही प्रमाणपन की सिद्धि होचुकी है ? पूर्वापर अविरोध, वाधकासम्भव, युक्तिसद्भाव, सम्वन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान इष्टप्रयोजन-सहितपन, तत्वोपदेश, प्राप्तोपज्ञता, अनुल्लंध्यता, दृष्टेष्टाविरोध आदि हेतुओं से जिनागम को ही प्रमाणपना सधता शोभता है प्रत्युत नैयायिक या वैशेषिकों के आगम को ही सर्वत्र प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रमाणों द्वारा विरोध पाने का कारण प्रमाणपना नहीं बन पाता है भावार्थ-नवीन नैयायिक या प्राचीन नैयायिकों के मन्तव्यों में अनेक स्थलों पर विरोध प्राता है कोई वायु का प्रत्यक्ष मानते हैं अन्य पण्डित वायु का प्रत्यक्ष नहीं मानते है, वैशेषिक दर्शन के छठे अध्याय प्रथम आन्हिकमें "एतेन हीनसमविशिष्टधामिकेभ्यः परस्वादानं व्याख्यातम ॥१२॥ तथा विरुद्धानां त्यागः १३.हीने परत्यागः ॥१४॥ समे प्रात्मत्यागः परत्यागो वा ।।१५।। इन सत्रों द्वारा चोरी और हिसा का विधान पाया जाता है जो कि पण्डित शंकरमिश्रकृत उपस्कार को देखने पर अधिक स्पष्ट होजाता है।
युक्त्यनुगृहीतन्वेन चागमस्य प्रामाण्यमनुमन्यमानः कथमितरेतराश्रयदोष परिहरेत् ? मिद्धे ह्यागममस्य तत्प्रतिपादकस्य प्रामाण्ये तत्र हेतोरतीतकालत्वाभावसिद्धिः तित्सिद्धौ च तदनुमानेनानुगृहीतस्य तदागमस्य प्रामाण्यसिद्धिरिति । स्याद्वादिनां तु सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वेनागमस्य प्रामाण्यसिद्धौ नायं दोषः । अत एव जलादिषु गंद्याद्यपावसाधन सवस्य हेतोरतीतकालत्वं प्रत्येतव्यं, तस्य प्रमाणभृतजैनागमविरुद्ध त्वात् । ततो न काल त्ययापदिष्टो हेतुः । नाप्यनैकांतिको विपक्षवृत्त्यभावात् ।
तथा युक्तियों द्वारा अनुग्रह को प्राप्त होरहेपन करके आगम का प्रमाणपना स्वीकार कर रहा वैशेषिक अपने ऊपर आये हुये इस अन्योन्याश्रयदोष का परिहार भला कैसे कर सकेगा? कि उस चक्षुरश्मियों के अनुभूत रूप, स्पर्श, सहितपन के प्रतिपादक ग्रागम का प्रमाणपना सिद्ध होचुकने पर तो उस चक्षु रश्मियों के अनुभूत रूप, स्पर्श, सहितपन को साधने में प्रयुक्त कियेगये तैजसत्व हेतु के वाधितपनेका अभाव सिद्ध होय और हेतु के उस अवाधितपनकी सिद्धि हो चुकने पर उस निर्वाध अनुमान करके अनुग्रहीत होरहे उस पागम के प्रमाणपन की सिद्धि होसके । यह वैशेषिकों के ऊपर परस्पराश्रय दोष मारहा हैं। हाँ स्याद्वादियोंके यहां तो वाधक प्रमाणोंके असम्भवपनेका बढ़िया निश्चय होचुका है इस कारण जिनोक्त आगमके प्रमाणपनकी सिद्धि करने में यह इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है, इस ही कारण से जल आदि में गन्ध आदि का प्रभाव साधने में कहे गये वैशेषिकों के सम्पूर्ण हेतुओं के ( में ) वाधित हेत्वाभासपन का विश्वास कर लेना चाहिये क्योंकि वह जल आदि में गन्ध आदि का प्रभाव तो प्रमाणभूत जिनागमों से विरुद्ध पड़ता है तिस ही कारण स हमारा स्पर्शवत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट ( वाधित ) नहीं है और पूरे वपक्ष या विपक्ष के एक देश में वृत्ति नहीं होने के कारण स्पर्शवत्व हेतु व्यभिचारी भी नहीं है तथा पृथिवी, जल, तेज, वायुओं को पुद्गल द्रव्य की पर्याय होना साधने में दिया गया स्पर्शादिमत्व हेतु भी निर्दोष है।
अन्वयाभावादगमक इति चेन, सर्वस्य केवलव्यतिरेकिणाऽप्रयोजकत्वप्रसंगात