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________________ श्लोक-वातिक गुरुत्व, सांसिद्धिकद्रवत्व, वेग, स्नेह ये चौदह गुण वर्त रहे कल्पित किये गये हैं तथा तेजो द्रव्य में रूप स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, सयोग विभाग, परत्व, अपरत्व, नैमित्तिकद्रवत्व, वेग, ये ग्यारह गुण स्वीकार किये गये हैं एवं वायु द्रव्य में स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, वेग ये नौ गुण वतं रहे इष्ट किये गये हैं । इस प्रकार कह रहे वैशेषिक पण्डित के प्रति श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वात्तिक द्वारा समाधान वचन को कहते हैं। नाभावोऽन्यतमस्यापि स्पर्शादीनाअदृष्टितः । तस्यानुमानसिद्धत्वात्स्वाभिप्रेतार्थतत्त्ववत् ॥२॥ स्पर्श आदि चारों गुग एक दूसरे के अविनाभावी हैं स्पर्श आदि चारों में से किसी एक की भी प्रज्ञान-वश अनुपलब्धि होजाने से झट उसका प्रभाव नहीं कह दिया जाता है। । प्रतिज्ञा ) जब कि उन में से अन्तरग. वहिरंग, कारणों के नहीं मिलने के कारण नहीं देखे जारहे उस किसी एक (या दो, तीन ) की अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्धि कर दी जाती है ( हेतु ) अपने अपने दर्शन शास्त्रों अनुसार अभीष्ट किये गये अनेक अप्रत्यक्ष पदार्थों का जेसे तत्वरूपेण सद्भाव मानना पड़ जाता है। ( अन्वय दृष्टान्त ) अर्थात्-सभी पदार्थ तो किसी भी दार्शनिक पण्डित को प्रत्यक्ष गोचर नहीं हैं, आकाश, काल, परमाणु, स्वर्ग अपवर्ग, प्रत्यभाव, महापरिमाण, ईश्वर, अनेक जीव आत्मायें मन, विशेष पदार्थ, इनका वैशेपिकों ने सर्वज्ञ के अतिरिक्त युष्मदादिकों को प्रत्यक्ष होना नहीं माना है। किन्तु इनकी अनुमानों से सिद्धि कर दी जाती है। छिपे रखे हुये भो कस्तूरी या इत्र की गन्धका निकट देश में घ्राण इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होजाता है, अपने आश्रय भूत पृथिवी को छोड़ कर अकेला गन्ध गुण तो घ्राण में घुस नहीं जाता है, गुण में क्रिया भी नही मानी गयी है, द्रव्य के विना अकेला गुराः ठहर नहीं पाता है । अतः गन्धगुण वाले पृथिवी के स्कन्ध ही शीशी से निकल रहे मानने पड़ेंगे अथवा जैन सिद्धान्त अनुसार शीशी में से सुगन्धित पदार्थ नहीं भी निकले फिर भी उस सुगन्धित वस्तु को निमित्त पाकर दूर तक फैल रहे पुद्गल पिण्ड सुरभि होजाते हैं। किन्तु उन नासिका के निकटवर्ती सुगन्धित पुद्गलों की गन्ध का जैसा प्रत्यक्ष होजाता है, वैसा उनके रस, स्पर्श, या रूप का इन्द्रियो द्वारा उपलम्भ नहीं होपाता है। इस अवसर पर वैशेषिक जैसे उस सुगन्धित पृथिवीं में रूप आदि चारों को स्वीकार कर लेते हैं, नहीं दीखना होने से गन्धवान् द्रव्य में तीन गुणों का अभाव नहीं कह दिया जाता है, उसी प्रकार जलमें गंध, तेज में गन्ध, रस, तथा वायु में गन्ध, रस, रूप, गुणों का प्रभाव नहीं कह कर सदभाव स्वीकार करना अनिवार्य है। किर्मियं प्रत्यक्षनिवृत्तिरनुपलब्धिराहोस्वित्सकलप्रमाण निवृत्तिः १ प्रथमा चेन्न ततः सलिलादिषु स्पर्शादीनामन्यतमस्याप्यभाव सिद्ध्यत् । स्वाभिप्रेतेनातींद्रियेण धर्मादिनानेकांतात् तस्यानुमानसिद्धत्वेप्सु गधस्य, तेजसि गधरसयोः, पवन गंधरसरूपाणामनुमानांसद्धत्वमस्तु । तथाहि आपो गंधवत्यस्तेजो गधरसवद्वायुः गंधरसरूपवान् स्पर्शवताव पृथ्वीवत् । वैशेषिकों को प्राचार्य पूछते हैं कि वायु आदि में स्पर्श, रस, आदिकों को प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा उपलब्धि नहीं होना यह यहां मानी गई अनुपलब्धि क्या भला अकेले प्रत्यक्ष प्रमाण की निवृत्ति
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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