SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम-अध्याय २१३ है अथवा क्या सम्पूर्ण प्रमाणों की निवृत्ति है ? बतायो । यदि पहिली प्रत्यक्ष प्रमाणकी निवृत्तिको अनुपलब्धि पकड़ोगे तब तो उस प्रत्यक्ष की अनुपलब्धि से जल आदि पदार्थों में स्पर्श आदिकों में से किसी भी एक का भो अभाव सिद्ध नहीं होसकेगा। अनुमान को प्रमाण मानने वालों के प्रति अनुमान से जलादि में गन्धादि की सिद्धि करदी जायगी । तथा वह प्रत्यक्षानुपलब्धि हेतु स्वयं वैशेषिकों के यहां अभीष्ट होरहे अतीन्द्रिय पुग्य, पाप, परमाणु, मन प्रादि करके व्यभिचारी होजायगा, असर्वज्ञ पुरुषोंको धर्मादिकों का प्रत्यक्ष नहीं होता है फिर भी उनका सद्भाव वैशेषिकों ने स्वयं माना है। जैनों के यहां भी धर्म प्रादिक अतीन्द्रिय पदार्थों की सत्ता स्वीकार की गयीहै। यदि उन पुण्य प्रादि प्रतीन्द्रिय पदार्थों की अनमान से सिद्धि होना इष्ट किया जायगा तब तो जल में गन्ध की, तेजो द्रव्य में गन्ध और रस की, तथा वायु में गन्ध, रस, रूप गुणों की भी अनुमान से सिद्धि करली जानो, इसका अधिक स्पष्टीकरण यों समझ लिया जाय कि सम्पूर्ण जल ( पक्ष) गन्ध वाले ( साध्य ) स्पर्शवाले होने से ( हेतु पृथ्वी के समान ( अन्वय दृष्टान्त )। तथा तेजो द्रव्य ( पक्ष ) गन्ध, रस, गुणों वाला है ( साध्य ) स्पशंवान् होने से ( हेतु : पृथिवी के समान (अन्वयदृष्टान्त ) । एवं वायु ( पक्ष ) गन्ध, रस, रूप, गुणो वाला है ( साध्य ) स्पर्श वाला होने से. ( हेतु ) पृथिवी द्रव्य के समान (अन्वय: ष्टान)। कालान्ययापदिष्टो हेतुः प्रत्यक्षागमविरुद्ध पक्षनिर्देशानंतरं प्रयुक्तत्वात् तेजस्यनुष्णत्वे साध्ये द्रव्यत्ववदिति चेत न नायनरश्मिष्वनुद्भूतरूपस्पशविशेषे साध्ये तेजसत्वहेतोः कालात्ययापदिष्टत्वप्रसंगात । वैशेषिक कहते हैं कि जैनों की ओर से कहा गया यह स्पर्शवत्व हेतु वाधितहेत्वाभास है क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण और पागम प्रमाणसे विरुद्ध होण्हे पक्षनिर्देश के पश्चात वह हेत प्रयक्त किया गया जैसे कि अग्नि में अनुष्णपना साध्य करने पर प्रयुक्त किया गया द्रव्यत्व हेतु वाधित है इसीप्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से जल में गन्ध नहीं सूची जा रही है, अग्निमें गन्ध या रस का इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं होगहा है, वायुमें गन्व, रस, रूपों की घ्राण, रसना, और चक्षु से उपलब्धि नहीं होती है । तथा हमारे वैशेषिकदर्शन के द्वितीय अध्याय में यह सूत्र है "रूपरसगन्धस्पर्शवनी पृथिवी" । १॥ रूपरसस्पर्शवत्य पापो द्रवाः स्निग्धाः ।।२।। तेजो रूपस्पर्शवत् ॥३॥ स्पर्शवान् वायुः ॥४॥"इस आगमसे भी जैनोंका हेतु वाधित है। ___ ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो मनुष्य आदि के चक्षु की किरणों में अप्रकट रूप और अव्यक्त उष्णस्पर्श विशेष को साध्य करने पर तेजसत्व हेतु से वाधित हेत्वाभासपन का प्रसंग आवेगा अर्थात्-वैशेषिकों ने चक्षु का तेजो द्रव्य से निर्मित होना स्वीकार किया है और तेजोद्रव्य में उष्णस्पर्श और भासुर रूप गुण माने जा चुके हैं, दूरवर्ती पदार्थों के साथ प्राप्यकारी चक्षु इन्द्रिय की किरणें संयुक्त होरहीं मानी गई हैं। अब वैशेषिकों के प्रति यह प्रश्न उठाया जाता है कि पांचसो हाथ दूर रखे हुए पदार्थ को देख रहीं दोनों प्रांखोंकी किरणें भला क्यों नहीं दीखती हैं ? रेलगाड़ी के एंजिन या मोटरकार में लगे हुये विद्युत् प्रदीपों की किरणें तो स्पष्ट दीख जाती हैं, इसी प्रकार चक्षुः की तैजस किरणों का उष्ण स्पश और चमकदार शुक्ल रूप का प्रत्यक्ष भी होना चाहिये माप वैशेषिकों ने तेजो द्रव्य में रूप- स्पर्श,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy