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________________ पचम- श्रध्याय वर्णवन्तः पुद्गला." यह सूत्ररचना समीचीन हो रही समझ ली जाय । अथ स्पर्शादिमंतः स्युः पुद्गला इति सूचनात् । चित्यादिजातिभेदानां प्रकल्पननिराकृतिः ॥ १ ॥ २११ स्पर्श आदि गुणों वाले पुद्गल होते हैं इस प्रकार सूत्रकार द्वारा सूचना कर देने से अव पृथिवी, जल, आदि भिन्न भिन्न जातियों के द्रों की बढ़िया मानी गयो कल्पना का निराकरण कर दिया जाता है । अर्थात् — वैशेषिकों ने एक पुद्गल तत्व को नहीं मानकर पृथिवी, जल, तेज, वायु, इन चार जाति के न्यारे न्यारे चार द्रव्य स्वीकार किये हैं "पृथिव्यपस्तेजो वायुराकाशं कालो दिना त्मा मन इति नव द्रव्याणि ५ ।। " वैशेषिक दर्शन के पहिले प्रध्याय का पांचवा सूत्र है । तत्वान्तर होने से इनका परस्पर में उपादान उपादेय भाव भी नहीं माना गया है किन्तु यह सर्वथा प्रतीक है । वायु से मेघ बन जाता है, मेघ जल से काठ पत्थर अन्नं, आदि उपज जाते हैं । लक्कड़ जलाया गया हो जाता है, दोप कलिका का उत्तर परिणाम काजल बन जाता है. पेट में चनों की वायु बन जाती है, जल से मोती हो जाता है इत्यादि रूप से पृथिवी आदि का परस्पर में उपादान उगदेय भाव देखा जाता है अतः विज्ञान मुद्रा से भी एक पुद्गल तत्त्र की सिद्धि अनिवार्य हो जाती है । पृथिव्यप्तेजोवायवो हि पुद्गलद्रव्यस्य पर्यायाः स्पर्शादिमत्वात् येन तत्पर्यायास्ते स्पर्शादिमंतो दृष्टा यथाकाशादयः स्पर्शादिमंतश्च पृथिव्यादय इतं तज्जातिभेदानां निराकरणं सिद्धं । गुण पृथिवी, जल, तेज, वायु, ये ( पक्ष ) पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं ( साध्य ) स्पर्श, रस, श्रादि वाली होने से ( हेतु ) जो पदार्थ उस पुद्गल की पर्याय नहीं हैं वे स्पर्श आदि गुणों वाल भी नहीं देखे गये हैं जैसे कि आकाश, काल, प्रादिक हैं ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) पृथिवी श्रादिक जब कि स्पर्श आदि गुण वाले हैं । उपनय ) श्रत: वे पुद्गल के पर्याय निर्णीत हो जाते हैं (निग मन ) । इस अनुमान द्वारा उस पृथिवी आदिक जातियों के भेद से भिन्न भिन्न माने जा रहे पृथिवी प्रादि विशेष तत्वान्तरों का निराकरण सिद्ध हुआ । नन्वयं पचाव्यापको हेतुः स्पर्शादिर्जले गंधस्याभावात्तेजसि गंधरसयोः वायौ गंधरसरूपाणामनुपलब्धेरिति ब्रुवाणं प्रत्याह । यहां वैशेषिक का पूर्व पक्ष है कि आप जैनों का कहा गया स्पर्श आदि से सहितपना या " तद्वत्वं तदेव" इस नियम अनुसार स्पर्श आदि यह हेतु पूरे पक्ष में नहीं व्याप रहा है, पक्ष के एक देश में वृत्ति और पक्ष के दूसरे देशों में प्रवृत्ति होने से भागासिद्ध हेत्वाभास है, कारण कि पक्ष किये जा रहे पृथिवी, जल, तेज, वायुयों में से पृथिवो में तो स्पर्श आदि चारों रह जाते हैं किन्तु जल में गन्ध नहीं है, तेजो द्रव्य में गन्ध और रस इन दो का प्रभाव है । वायुमें गन्ध, रम, और रूप तीनों की उपलब्धि नहीं है । वैशेषिक मत अनुसार " वायोन वैकादशतेजसो गुणाः । जलक्षितिप्राणभृतां चतुदेश | दिक्कालयोः पंच षडेव चाम्बरे, महेश्वरेष्टौ मनसस्तथैव च ॥” पृथिवी में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, सख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, नैमित्तिकद्रवत्व, वेग यों चौदह गुण माने गये हैं और जल में रूप, रस, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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