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________________ पंचम अध्याय ५ जीव का व्यवच्छेद करने के लिये जीव पद का ग्रहरण किया गया है । दूसरी बात यह भी है कि धर्म आदिकों के अजीवपन का विधान करने के लिये यह सूत्र है, अतः अजीव का ग्रहण करना युक्तिपूर्ण है अर्थात् ब्रह्माद्वैतवादी सबको जीव- श्रात्मक ही स्वीकार करते हैं उनके प्रति धर्मादिकों में जीवन का प्रतिपादन करना सूत्रकारको आवश्यक पड़ गया है । परोपकारी प्राचार्य महाराज सूत्रों द्वारा अज्ञात प्रमेयों का ज्ञापन कराते हैं । यदि वह प्रतिवादी फिर यों कहे कि तब तो 'अजीवाः' इतना ही विधेय दल रहो. काय ग्रहण की सूत्र में कोई प्रावश्यकता नहीं । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि धर्मादिकों में एक - प्रदेशी या अप्रदेश कालागु के समान प्रदेशमात्रपन का निराकरण करने के लिये सूत्रकार ने काय का ग्रहण किया है अन्यथा यानी यदि यहाँ काय का ग्रहण नहीं किया जातः तो " ते अस्तिकायाः " वे धर्म प्रादिक अस्तिकाय हैं इस प्रकार एक न्यारे दूसरे सूत्र के प्रारम्भ करनेका प्रसंग होता. इसी सूत्र में काय कह देने से उस गौरव दोष से बच जाते हैं । यदि प्रतिवादी यहां यों कहे कि जीवों के कायपनका विधान करने के लिये निराला सूत्र तो आरम्भ करने योग्य ही है, ऐसी दशा में लाघव कहाँ होसकेगा ? यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि हमको जीवों के कायपन का विधान करनेके लिये न्यारा सूत्र नहीं प्रारम्भ करना है "असंख्येया: प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम् " धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, और एक जीव द्रव्य के मध्यम असंख्याता संख्यात प्रमाण प्रसंख्याते प्रदेश हैं, इस सूत्र से ही जीवों के प्रदेशों की बहुलता की सिद्धि होजाने से कायपन विधान होजाता है, अतः न्यारे सूत्र का आरम्भ नहीं करने से लाघव हुआ । पुनः प्रतिवादी बोल उठा कि तब तो उस ही सूत्र से धर्म और अधर्म द्रव्य के बहुत प्रदेश सिद्ध होय ही जांयगे, आकाश के अनन्त प्रदेश हैं इस सूत्रकार के वचन से आकाश के बहुत प्रदेश सध जांयगे । तथा पुद्गलों के संख्याते असंख्याते और अनन्ते प्रदेश हैं इस सूत्रकार के वचन से पुद्गल के कायपन का विधान होना सधजाता है, अत: इस सूत्र में काय का ग्रहरण करना व्यर्थ है । लाघव करने बैठे हो तो अच्छा लाघव करना चाहिये | ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन "असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम्, श्राकाशस्यानन्ता:, संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम्., तीन सूत्रों करके धर्म आदि द्रव्यों के प्रदेशों का इतना नियतपरिमाणपना विधान कर दिया गया है । प्रतिवादी बुरे ढंग से पीछे पड़कर पुनः कहता है कि तब तो उस " असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माaatarvi" सूत्र से जीव के भी असंख्यात प्रदेशीपन का विधानमात्र होजाने कायपन की विधि नहीं होसकेगी अर्थात् उस सूत्र से धर्मादिक के समान जीवके भी श्रसंख्यात प्रदेशों की ही सिद्धि होगी, कायपन की सिद्धि नहीं होसकेगी। धर्मादिकों के कायपनके लिये जब यह सूत्र किया है तबतो जीव के कायपन की विधिके लिये न्यारा सूत्र बनाना ही पड़ेगा, लाघवकी चर्चा उड़ गयी । प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस सूत्र से असंख्यात प्रदेशों की विधि होते हुये जीव के कायपनका अनुमान कर लिया जाता है । किन्तु इस सूत्र में यदि धर्म आदिकों के कायपन का विधान नहीं किया गया होता तो वहां "असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानां" इस सूत्र द्वारा जीवके कायपनका अनुमान नहीं किया जासकेगा, इस कारण यहां सूत्र में काय का ग्रहण करना उचित है । जीव (पक्ष) अस्तिकाय है ( साध्य) प्रदेशों के बहुत से इतने परिमाण का आश्रय होने से (हेतु) धर्म, अधर्मादि के समान (अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमान की प्रवृत्ति होजाती है । अन्यथा यानी यहां
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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