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________________ श्लोक-धातिक काय का ग्रहण नहीं करने पर तो अस्तिकाय होरहे धर्मादि द्रव्य-स्वरूप दृष्टान्त की प्रसिद्धि हो जाने से जीव को अस्तिकाय साधने वाला अनुमान नहीं प्रवर्त सकता था अतः इस सूत्र में काय का ग्रहण करना सार्थक है, तुच्छ लाघव को हम इष्ट नहीं करते हैं । किमर्थं धर्मादिशब्दानां वचनं ? विभागविशेषलक्षणप्रसिद्धयर्थ । अस्तु नाम धर्माधर्माकाशपुद्गला इति शब्दापादानात् विभागस्य प्रसिद्धिः, विशेषलक्षणम्य तु कथं ? तन्निवचनस्य लक्षणाव्यभिचारात् तद्विशेषलक्षणसिद्धिः। सकृत् मकलगतिपरिणामिना सांनिध्यधानाद्धर्मः, सकृत्सकलस्थितिपरिणामिनां सांनिध्यधानाद्गतिविपर्यायादधर्मः, आकाशंतेऽस्मिन् द्रव्याणि स्वयं वाकाशते इत्याकाशं, त्रिकालपूरण गलनात् पुद्गला इति निर्वचनं न प्रतिपक्षमुपयातीत्यव्यभिचारं सिद्धं । ____ यहां कोई प्रश्न करता है कि अजीव और काय शब्द का प्रयोग करना सूत्र में सार्थक समझ लिया, अब यह बतानो कि धम आदिक शब्दों का कथन सूत्रकारने किसलिये किया है ? इसका उत्तर प्राचार्य कहते हैं कि विभाग करके द्रव्योंके विशेष लक्षणों की प्रसिद्धि के लिये धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इन शब्दों का सूत्र में उपादान किया गया है। पुनः किसीका आक्षेप है कि धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इस प्रकार शब्दों का उपा. दान करदेने से अजीव काय के विभाग की प्रसिद्धि भले ही हो जाय किन्तु उनके न्यारे न्यारे विशेष लक्षणोंकी सिद्धि भला किस प्रकार हो सकती है ? किसी का नाम ले देने मात्रसे इतरव्यावर्तक लक्षण नहीं बन जाता है। प्राचार्य महाराज इसका समाधान करते हैं कि उन धर्म आदि शब्दों की निरुक्ति कर प्राप्त हुये यौगिक अर्थका स्वकीय लक्षण के अनुसार कोई भी व्यभिचार दोष नहीं देखा जाता है अतः उन धर्म आदि के विशेष विशेष लक्षणों की सिद्धि हो जाती है । जैसे कि सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र शब्दों की निरुक्ति द्वारा ही निर्दोष लक्षण प्रसिद्ध हैं, हां सम्यग्दर्शन का निरुक्तिद्वारा प्राप्त हुआ 'समीचीन देखना' स्वरूप अर्थ इष्ट नहीं है, अतः सूत्रकारको रूढि अर्थ या पारिभाषिक अर्थ प्रकट करने के लिये न्यारा लक्षण-सूत्र कहना पड़ा था । जब तक निरुक्ति से लक्षण अर्थ लब्ध हो जाय तब तक लम्बी परिभाषा बनाना उचित नहीं है। उसी ढंगसे धर्म आदिकों की कुछ विशेषणों के साथ निरुक्ति इस प्रकार करलेनी चाहिये कि गमन परिणाम से युक्त होरहे जितने भी जीव या पुद्गल हैं उन सबके युगपत् सन्निधान या सहकारिपन का धारण कर देने से धर्म द्रव्य कहा जाता है। भावार्थ-गमनमें उपादान कारण या प्रेरक निमित्त तो ये जीव पुद्गल ही हैं किन्तु गमन करने वाले सम्पूर्ण जीव पुद्गलों का युगपत् उदासीन कारण धर्मद्रव्य है "धृञ् धारणे, धातुसे मन् प्रत्यय करदेने पर धर्म शब्द बनता है। तथा कतिपय जीव, पुदगल और धर्म, अधर्म, आकाश, काल, इन स्थितिपरिणामवाले सम्पूर्ण द्रव्योंके एक ही काल में सान्निध्य या सचिवपन का प्राधान कर देनेसे कारण अधर्म द्रव्य कहा जाता है, यह अधर्म द्रव्य उस गति से विपर्यय कर देनेके कारण अधर्म कहा जाता है। अधर्म शब्द में पड़ा हुमा नञ् शब्द विपरीत अर्थ का प्रतिपादक है, पुद्गल द्रव्य बने हुये पुण्य पापों से ये धर्म, अधर्म द्रव्य सर्वथा विलक्षण हैं । पारिभाषिक या साङ्केतिक शब्दों में आनुपूर्वी का सादृश्य मिलाते रहना ठलुपात्रोंका अप्रासंगिक कर्तव्य है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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