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श्लोक-बार्तिक
पाश्रित हो रहीं समझ ली जाती हैं। दोनों पदों के वाच्य अर्थों के न्यारे न्यारे अधिकरण को कहने वाली 'अजीवों के काय' यों षष्ठीतत्पुरुष वृत्ति करने पर तो अजीव और काय में कथंचित् भेद की विवक्षा होने पर भी केवल उत्तर पदार्थ-प्रधान मानी गयी तत्पुरुषवृत्ति में कायों की ही प्रधान रूप से भली प्रतीति होनेका प्रसंग होवेगा। अर्थात् 'अजीवोंके काय' यों तत्पुरुष करने पर अजीव अर्थ गौण पड़ जाता है और 'अजीव हो रहे जो काय' यों कह देने पर दोनों पदार्थों की प्रधानता रहती है। यदि यहां कोई यों आक्षेप करे "अजीवाश्च ते कायाश्च" यो विग्रह करते हुये "विशेषणं विशेष्येण" इस सूत्र द्वारा कर्म-धारय समास करने पर भी अजीवों को विशेषणपना हो जाने से समानाधिकरणपना ख्यापन करने वाली कर्मधारयवृत्ति में भी यह दोष तदवस्थ है। अर्थात्-अजीव विशेषण है और काय विशेष्य है। यों समान अधिकरण होते हुए भी विशेष्य हो रहे कायों की ही समीचीन प्रतीति हो सकेगी। विशेषरण हो रहा अजीवपना गौरण पड़ जायगा और आप जैनों को दोनों की प्रधानता अभीष्ट है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यहां अजीव और काय दोनों की अभेद की प्रतीति हो रही है "अजीव हो रहे ही जो काय हैं" इस प्रकार धर्म, अधर्म, आदिकोंके अजीवपन और कायपन करके तदात्मकपन की प्रधानता होने पर उन दोनों का समानाधिकरणपना बन जाता है। अजीवपन को छोड़कर कायपना जीव द्रव्य में है और कायपन को छोड़कर अजीवपना काल द्रव्य में है यों व्यभिचार की रक्षा करते हुये तथा अजीव को विशेषण बनाते हुये कर्मधारयवृत्तिका निर्वाह कर दिया जाता है परन्तु अजीवपना इन चार कायों में कायपना इन चार अजीवों में अभेद अनुसार प्रोत प्रोत प्रतीत हो रहा है, अतः इस सूत्र में दोनों भेदों की प्रधानता रखते हुये धर्म, अधर्म, प्राकाश, पुद्गलों का उद्देश्य कर युगपत् अजीवपन और तदभिन्न कायपन का विधान कर दिया गया है।
काया इत्येवास्तु इति चेन्न, जीवस्यापि कायत्वात् तद्व्यवच्छेदार्थत्वादजीवग्रहणस्य । धर्मादीनामजीवत्वविधानार्थत्वाच्च सूत्रस्य युक्तमजीवग्रहणं । तहि जीवा इत्येवास्तु इति चेन्न, कालाणुवत्प्रदेशमात्रत्वनिराकरणार्थत्वात् कायग्रहणस्य । अन्यथा तेऽस्तिकाया इति सूत्रांतरारंभप्रसंगात् । जीवानां कायत्वविधानार्थमारंभणीयमेव सूत्रांतरमिति चेत्, नारंभणीयं, असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानामित्यत एव जीवानां प्रदेशवाहुल्यसिद्धेः कायत्वविधानात् तहि धर्माधर्मयोस्तत एव, आकाशस्यानंता इति वचनादाकाशस्य, संख्येयासंख्येयानंताश्च पुद्गलानामिति वचनात् पुद्गलस्य कायत्वविधानसिद्धेरपार्थकं कायग्रहणमिति चेन्न, ततो धर्मादिप्रदेशानामियत्ताविधानात् । तहि जीवस्यापि ततोऽसंख्येयप्रदेशत्वविधानान कायत्वविपिरिति चेन्न, ततो जीवस्य कायस्वानुमानात् । न चात्र धर्मादीनां कायत्वविधाने तत्र जीवस्य कायस्वमनुमातु शक्यमिति युक्तमिह कायग्रहणं । अस्तिकायो जीवः प्रदेशेयत्ताश्रयत्वाद्धर्मादिवदित्यनुमानप्रवृत्तः अन्यथा दृष्टान्तासिद्ध।
___ यहां कोई प्रतिवादो कटाक्ष करता है कि अजीव नहीं कह कर विधेय दल में 'कायाः' इतना ही एक पद रहो वृत्ति आदिका टण्टा स्वत: मिट जायगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि जीनको भी असंख्यात-प्रवेशी होने से कायपना है, अतः अजीवों का संग्रह करते समय उस