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पंचम अध्याय
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नास्तित्व है, यह यों असत् है, इस प्रकार अनुमान या अर्थापत्ति द्वारा प्रतीत किये जा रहे भावों के विशेषरण हो र हेपन करके ही यहां असत् यानी प्रभाव की प्रतीति हो रही है । अतः प्रभावों का स्वतंत्रपना नहीं माना जाकर भावों के पराधीन होना ही माना जावेगा । यों तुम्हारे कहने पर तो हम जैन भी कहते हैं, कि तिस ही कारण से नील आदि को भी स्वतंत्रपना नहीं होवे अर्थात् - नील है, सुगन्ध है, इत्यादि स्वतंत्र नीलादि की जहां प्रतीति हो रही मानी गयी है। वहां भी विशेष्य होरहे भावों की प्रर्थापत्या प्रतीति करली जाती है, अतः वे नील आदि भी स्वतंत्र नहीं हैं, भावों के पराधीन हैं । तात्पर्य यह निकलता है कि भावों के पराधीन होरहे नील आदिक जैसे भावों की पर्याय ही हैं, उसी प्रकार भावों के पराधीन वर्त रहा प्रभाव भी भाव पर्याय ही है कोई स्वतंत्र तत्व नहीं है। एक बात यह भी है कि अभावों को भाव पदार्थों का स्वभावपना हम पूर्व प्रकरणों में प्राय: ( कईवार ) व्यव - स्थापित कर चुके हैं, इस कारण यहां फिर उसका विस्तार नहीं किया जाता है । यत्पुनरस्तित्वं विपरिणमनं च जातस्य सतस्तत्सदृशपरिणामात्मकं तत्र वैसादृश्यप्रत्ययानुत्पत्तेः ।
वृद्धि, अपक्षय, जन्म, और विनाश इन चार विकारों का विचार किया जा चुका है, फिर जो छह विकारों में अस्तित्व और विपरिणाम नाम के विकार हैं। वे तो उत्पन्न होचुके सद्भूत पदार्थ के सदृश पर्याय स्वरूप हैं, क्योंकि उनमें विपद्दशपन के ज्ञान की उत्पति नहीं होती है । अर्थात्-जायते अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षयते विनश्यति, इस क्रम प्रनुसार पदार्थ पहिले उत्पन्न होता है । पीछे आत्मलाभ कर चुका जो अपना अवस्थान करता है, वही अस्तित्व है, उसके पश्चात् उस पदार्थ. की अन्य सदृश अवस्थानों की प्राप्ति हाजाना विपरिणाम है । अतः अस्तित्व और विपरिणाम सदृश अवस्थायें ही हैं, जन्म के समान विसदृश परितियां वे नहीं हैं ।
ननु च सर्वस्य वस्तुनः सदृशेतर परिणामात्मकत्वे स्याद्वादिनां कथं कश्चित्सदृशपरिणामात्मक एव कश्चिद्विसदृशपरिणामात्मकः पर्याया युज्यते इति चेत्, तथा पर्यायार्थिकप्राधान्यात् सादृश्यार्थ प्राधान्याद्वे सादृश्यगुणभावात् सादृश्यात्मकाय परिणाम इति मन्यामहं, न पुनर्वैसादृश्यनि राकरणात् । तथा वैसादृश्यार्थ प्राधान्यात्सादृश्यस्य सतापि गुणभावाद्वसदृश - न्मकोयं परिणाम इति व्यवहरामहे । तदुभयार्थ प्राधान्यात्तु सदृशेतर परिणामात्मक इति संगिरामहे तथा प्रततिः । ततोपि न कश्चिदुपालंमः ।
यहां कोई शंका उठाता है कि स्याद्वादियों के यहाँ सम्पूर्ण वस्तुयें जब सदृशपर्याय और विसहा पर्याय स्वरूप मानी जा चुकी हैं। तो फिर जन्म, विनाश, प्रादि के विषय में किया गया यह सिद्धान्त किस प्रकार युक्तियों से भरपूर हो सकता है ? कि काई काई अस्तित्व और विपरिणाम नाम के विकार तो सदृश परिणाम स्वरूप ही होवें तथा कोई जन्म और विनाश नामक पर्याय अकेले विसदृश परिणाम स्वरूप ही हावें. अर्थात् -" सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः” सामान्य विशेष- प्रात्मक सम्पूण पदाथ हैं जो कि प्रमाण के विषय हैं, ऐसी दशा में जन्म, विनाश, तो विसदृश परिणाम ही. मौर अस्तित्व, विपरिणाम, ये सदृशपर्याय हो कैसे माने जा सकते हैं ? हां वृद्धि और अपक्षय को सदृश, विसदृश - प्रात्मक पर्याय स्वीकार करना यह समुचित है। यों कहने पर तो ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि तिस प्रकार अस्तित्व और विपरिणम नामक विकारों में पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से सहपन अथ को प्रधानता है । विसरापन का गाता है । मत: यह मस्तित्व या विपरिणाम नाम की