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श्लोक - बार्तिक
विशेषरण है । केवल प्रत्यय बदल जानेसे श्राधार भूत विशेष्य कोई श्राधेय नहीं हो सकता है और आधेय भूत विशेषरण बिचारा श्राधार नहीं बन सकता है, अतः जो पदार्थोंको धारता है वह विशेष्य होगा और जो उसमें वर्तता है वह विशेषरण होगा ।
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न च सर्वदा भावपरतंत्रत्वमभावस्यासिद्धं घटस्याभावः पटस्य चेश्वं प्रततिः स्वतंत्रस्याभावस्य जातुचिदप्रतीतः श्रत एव भाववैलक्षण्यमभावस्येति चेन्न न ल दे व्यभिचारात् । लामेदमित्येवं नीलादेः स्वतत्रस्य संप्रत्ययात्सर्वेदा भावपरतत्रत्वाद्र लादेर्न तेन व्यभिचार इतेि चेत्, तर्हि तवाप्यसदिदमित्येवमभावस्य स्वतंत्रस्य निश्वयात् सर्वद भावपार त्र्यं न सिद्ध्येत् इदमिति प्रतीयमानभावविशेषणतयात्रासतः प्रतीतेर स्वतंत्रत्वे नीलादेरपि स्वतंत्रत्वं मा भूत्तत एव, व्यवस्थापितप्रायं वामवस्य भावस्वभावत्वमिति न प्रपच्यते स्वरूपासिद्ध दोष का निराकरण करते हुये ग्रन्थकार पक्ष में हेतु का वर्तना पुष्ट करते हैं, कि प्रभाव के सदा भावों के पराधीन रहनापन प्रसिद्ध नहीं है । देखिये घट का प्रभाव है, यहां पर का प्रभाव है, अत्र पुस्तकं नास्ति, इस प्रकार भाव के अधीन होरहे ही प्रभाव की प्रतीति होती है । "अभाव है, प्रभाव है" इस प्रकार स्वतंत्र होरहे प्रभाव की कदाचित् भी प्रतीति नहीं होती है यानी अभावको कहने पर उसी समय उसका प्रतियोगी तिसी प्रकार लग बैठेगा जैसे कि उष्णता के कहने पर अग्नि, विजली ग्रादि षष्ठी विभक्ति वाले पद विशेष्य होकर लग जाते हैं। यहां वैशेषिक कहते हैं कि इस ही कारण से प्रभाव को भावों से विलक्षणपना माना जाता है। जैसे कि प्रग्नि की उष्णता है यहाँ अग्नि को हम वैशेषिक द्रव्य पदार्थ मानते हैं, और उष्णता को उस अग्नि से विलक्षण गुण पदार्थ अभीष्ट किया गया है। प्रकरण में भी घटस्य प्रभावः यहां घट न्यारा पदार्थ है । और अभाव उससे विलक्षण निराला तत्व है जो भाव के अधीन होगा वह भाव से न्यारा अवश्य होगा, इस कारण श्राप जैनों का भावों के पराधीनपना हेतु ही प्रभाव को भावों से निराला साध रहा है ।
प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि नील, पीत, सुगन्ध, दुर्गन्ध आदि करके व्यभिचार होजायगा यानी नील, पीत, प्रादिभी सदा भावोंके पराधीन रहते हैं किन्तु वे नील प्रादिक तुम्हारे यहां छह भाव पदार्थों से विलक्षण नहीं माने गये हैं । तब तो " अत एव " आदि इस वैशेषिकों के कथन अनुसार भावविलक्षणपना साधने के लिये दिया गया सदाभावपरतंत्रत्व हेतु व्यभिचारी है । ' प्रभावों के सर्वथा भावों से विलक्षणपन का ग्राहक कोई प्रमाण भी नहीं है । यदि वैशेषिक यों कहे कि हेतु के शरीर में सदा यह पद पड़ा हुआ है, जो सर्वथा ही भावों-अधीन रहेगा वह तो भावों से विलक्षरण अवश्य होगा किन्तु "यह नील है, यह पीत है. यह दुर्गन्ध है" इस प्रकार स्वतंत्र होरहे नील आदि की भी समीचीन प्रतीति हो रही है अतः नील आदि का सर्वदा भावों के पराधीनपना प्रसिद्ध है, कभी कभी वे स्वतंत्र भी प्रतीत होजाते हैं, इस कारण उन नील, आदि करके व्यभिचार नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यों कहोगे तब तो तुम वैशेषिकों के यहां भी " यह असत् है, यह अभाव है" इत्यादि इस प्रकार स्वतंत्र होरहे प्रभाव का भी निश्चय होरहा है, अतः प्रभावों को सदा भावों का परतंत्रपना नहीं सिद्ध हो सकेगा, कभी कभी प्रभाव स्वतंत्र भी जाने जाते हैं ।
यदि वैशेषिक यों कहैं कि "असत् है, अभाव है" यहां भले ही कोई विशेष्य मानेगये भाव को कण्ठोक्त नहीं कहे फिर भी भाव पदार्थ प्रर्थापत्ति करके गम्यमान होजाता है । घट असत् है, पुस्तकका)