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________________ * श्लोक- वार्तिक १६२ पर्याय सादृश्य स्वरूप है इस प्रकार हम स्याद्वादी विद्वान् मान रहे हैं। किन्तु फिर विमानका सर्वथा निराकरण कर देने से हम अस्तित्व को केवल सदृश - प्रात्मक नहीं कह रहे हैं । अर्थात् - गौण रूप से इनमें विसदृशता विद्यमान है । तिसी प्रकार जन्म और विनाश में भी समझ लेना, यहां विसदृशपन अर्थ की प्रधानता है, विद्यमान भी होरहे साहब का गौरणभाव है। इस कारण यह जन्म या विनाश नामक विकार विसदृश स्वरूप हैं यों हम स्याद्वादी कोविद व्यवहार कर रहे हैं, जैसे कि स्पर्श, रस, गन्ध, वरणं. चारों गुणों Ah होते हुये भी मखमल या रूई को कोमल स्पर्शवान् और नीबू, लड्डु, आदि को रसवान् पदार्थ तथा कपूर, इत्र, को गन्धवान् एवं सुन्दर शरीर चित्र, आदि को रूपवान् पदार्थ कह दिया जाता है । हो उन सादृश्य, वैसादृश्य, दोनों अर्थोंकी प्रधानता से तो वृद्धि या अपक्षम ये विकार सदृश परिणाम और विसदृश परिणाम-प्रात्मक हैं। इस प्रकार हम स्याद्वादी प्रतिज्ञा पूर्वक कहते हैं । क्योंकि तिस प्रकार की समीचीन प्रतीति हो रही है । प्रतीतिसिद्ध पदार्थ का कौन अपलाप कर सकता है ? तिस कारण हमारे ऊपर कोई भी उलाहना नहीं आता है " अर्पितानपित सिद्धेः " यों स्वयं सूत्रकार महोदय कहने वाले हैं । संकर व्यतिकर-व्यतिरेकेणाविरुद्धस्वभावानां निःसशय तदतत्परिणामानां विनि तात्मनां जीवादिपदार्थेषु प्रसिद्ध ेः । सुख दिपर्यायेषु सच्चाद्यन्वयविवर्तसंदर्भोपलचितजन्नादिविकारविशेषवत् जीवादयो द्रव्यपदार्थाः सुखादयः पर्यायाः विनियततदतत्परिणाम मयत्वविवर्तयितृविकारा । इत्य कलंकदेवैरप्यभिधानात् । " परस्परात्यंताभावसमानाधिकरणत्वे सति धर्मिणोरेकत्र समावेशः संकरः " परस्पर के श्रत्यन्ताभाव का समान अधिकरणपना होते सन्ते धर्मियों थवा विजातीय धर्मों का एक स्थल में समागम होजाना संकर दोष है । अथवा " येन रूपेण भेदस्तेन भेदश्चाभेदश्चेति सकर: " । "परस्परविषयगमनं व्यतिकरः " परस्पर में एक दूसरे के विषय में चला जाना व्यतिकर दोष है । जीव आदि पदार्थों में संकर और व्यतिकर दोष का पृथग् भाव करते हुये श्रविरुद्ध अनेक स्वभावों को धार रहे और विशेषरूप से नियस होकर अपने अपने स्वरूप में निमग्न हो रहे सदृश, विसदृश, परिणामों की प्रसिद्धि हो रही है, इस में कोई सन्देह नहीं है जैसे कि सुख आदि पर्यायों में सत्व, द्रयत्व आदि अन्वयी विवर्तों के सन्दर्भ से उपलक्षित होरहे जन्म, विनाश, आदि विशेष विकारों की लोक में प्रसिद्धि होरही है । अर्थात् - जीव श्रादिक सम्पूर्ण पदार्थ सदृश, विसदृश, परिणाम प्रात्मक हैं। इस बात को बालक बालिका तक जानते हैं । इसी प्रकार सुखादि पर्याय भी सत्व, द्रव्यत्व, आदि के अन्वय को धारती हुई सदृश - प्रात्मक हैं वे ही सुखादि पर्यायें जन्म आदि विकारों वाली विसदृश - प्रात्मक भी हैं। कोई संकर व्यतिकर, उमय, विरोध, आदि दोष नहीं आते हैं, हां इन धर्मों के अपेक्षणीय स्वभाव न्यारे न्यारे हैं । माननीय श्री अकलंक महाराज ने भी इस प्रकार कहा है कि जीव, पुद्गल प्रादिक द्रव्य स्वरूप पदार्थ और सुख, मतिज्ञान, आदि पर्यायें ये सब विशेष विशेष के लिये नियत हो रहे सदृश विसदृश परिणाम कराने वाले विवर्तयिता तत्व के विकार हैं। अथवा सदृश, विसदृश, परिणामों की स्व' के अधीन कर रहे पर्यायी तत्व के ये जीवादि द्रव्य या सुखादि पर्याय विवत हैं । वस्तु प्रशी है और द्रव्य या पर्याय उसके मा हैं जो कि मूल धारा से सामान्य विशेष - प्रात्मक हैं ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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