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________________ पंचम अध्याय का प्रभाव हो जाने से वह प्रत्यभिज्ञान अभ्रान्त समझा जाता चांदी नहीं है,, ऐसा वाधक ज्ञान पश्चात् उपज जाता है, अतः माता की गोद में पड़ा हुआ वही बालक क्रम क्रम से कुमार, का वाधक कोई समीचीम ज्ञान नहीं है । १८७ सीप में हुये चांदी के ज्ञान का "यह सीप में चांदी का ज्ञान भ्रान्त है किन्तु युवा, वृद्ध, होजाता है, इन प्रत्यभिज्ञानों प्रत्यभिज्ञान की प्रमाणता पर आस्था नहीं रखने वाले पण्डित यदि सभी स्थलों पर उन प्रत्यभिज्ञान का भ्रान्तपना स्वीकार करेंगे तब तो नैरात्म्यवाद के अवलम्ब करने का प्रसंग प्रवेगा किन्तु वह बौद्धों के यहां नैरात्म्यवाद का अवलम्ब किया जाना श्रेष्ठमार्ग नहीं है क्योंकि कालान्तर स्थायी अथवा अनादि अनन्त आत्माकी सिद्धि हो चुकी है जो ग्रात्माको या आत्माके स्वभावोंको अथवा श्रन्य पदार्थों के धर्मों को स्वीकार नहीं करतें हैं वे अवश्य नैरात्म्यवादी हैं, अतः बाल्य, कौमार्य, श्र अवस्थाओं में ' हुआ एकत्व प्रत्यभिज्ञान प्रमारण है, जिस कारण से कि पहिले प्रकरणों में सदृश, विसदृश, परिणाम स्वरूप या सामान्य विशेषात्मक वस्तु की सिद्धि की जा चुकी है प्रत्यभिज्ञान अथवा अभेद को विषय करने वाले ज्ञानों की प्रमाणता का व्यवस्थापन होचुका है । तिस कारण से यह कहना सर्वाग युक्तिपूर्ण है कि वृद्धिस्वरूप होरहा परिणाम तो सदृश परिणाम और विसदृशपरिणात्मक है, केवल सहश ही या केवल विसदृश ही नहीं है । एतेनाक्षयपरिणामो व्याख्यातः । यथा स्थूलम्य कायादेः सदृशेतर - प्रत्ययसद्भावात् मदृशेत्मक इति । विसदृश परिणामो जन्म तस्यापूर्वप्रादुर्भावलक्षणत्वात्, तथा विनाश: पूर्व- 1 विनाशस्य पूर्व प्रादुर्भावरूपत्वात् । तद्व्यतिरिक्तस्य विनाशस्याप्रतीतेः । इस कथन करके अपक्षय नाम के परिणाम का भी व्याख्यान कर दिया गया समझ लो । अर्थात् पुष्ट शरीर वाला युवा पुरुष जब वुड्डा होता हुआ कुछ क्षीण होजाता है अथवा कोई रोगीया दरिद्र पुरुष क्षीणशरीर होजाता है उसका वह प्रयक्षय भी कुछ सादृश्य और कुछ वैसादृश्य को लिये ये सदृशेत परिणाम स्वरूप है। जिस प्रकार कि मोटे होरहे शरीर, मरिण, प्रादिक का अपक्षय होने पर सट्टापन और विसदृशपन को जानने वाले ज्ञान के विषयताका सद्भाव होजाने से वे काय आदिक पदार्थ सदृश, विसदृश, परिणाम प्रात्मक हैं । कृष्ण पक्ष में क्षीण होरहा चन्द्रमा, शाण पर घिसी गयी अणि वर्षा के पश्चात् शरद ऋतु की नदियां, इनका अक्षय परिणाम भी समान असमान उभयात्मक है ! हां जन्म नामक परिणाम तो विसदृश परिणाम कहा जा सकता है, क्योंकि सर्वथा पूर्व पदार्थ का प्रादुर्भाव होना उस जन्म का लक्षण है। घोड़ा मर कर मनुष्य उपज गया या मनुष्य मर कर स्वर्ग में देव का जन्म पाता है, बत्ती, तेल आदि से कलिका विलक्षगा होरही उपजती है, यहां अन्वित हो रहे किसो धौव्य अंशकी विवक्षा नहीं की गयी है । तिस प्रकार जन्म, अस्तित्व श्रादि छः भावों में गिना या गया विनाश परिणाम भो विसदृश परिणाम कहा जाता है क्योंकि पहिली पर्याय का विनाश होजाना पर्व पर्याय के प्रादुर्भाव स्वरूप है "वार्योत्पाद: क्षयो हेतोः " गेहुत्रों का क्षय चून का उत्पाद रूप है। इस अपूर्वअवस्था के प्रादुर्भाव से अतिरिक्त किसी तुच्छ विनाशकी प्रतीति नहीं होरही है । नैयायिकों का सा तुच्छ ध्वंस हमको अभीष्ट नहीं है, अपूर्व प्रादुर्भावको हम विसदृशपरिणाम कह ही चुके हैं । सामावतीति प्रत्ययविषयत्वादिति चेत्, ततश्च मांवस्वभावत्वे नीरूपत्वप्रसंगात् । "
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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