________________
श्लोक-वार्तिक
..." जगत्में परिणाम अनेक प्रकारके हैं,नैमित्तिक भाव भी अनेक प्रकारके हैं कोई कोई परिणाम तो पहिले पहिले परिणामोंके सदृश होता है, जैसे कि प्रदीप आदि की ज्वाला, कलिका आदि हैं, प्रदीप की कलिका से कलिका पुनः कलिका से वैसी ही कलिका यों घण्टों तक दीपक सदृश परिणामों को धारता रहता है। हां कोई कोई परिणाम तो विसदृश यानी परिणामी से विलक्षण होता है जैसे कि उस ही प्रदीप आदि के काजल, धुप्रां राख, आदि परिणाम हैं तथा कोई कोई परिणाम कुछ अंशों में परिणामी के सदृश और अन्य अंशों में परिणामी से विलक्षण होता है जैसे कि सुवर्ण के ककरण, आदि परिणाम हैं । यहां सोनापन सदृश है किन्तु पहिले फांसेकी प्राकृति सर्वथा विसदृश होकर कंकण हमली, कुण्डल आदि रूप होगई है। उन परिणामों में पहिले संस्थान ( रचना.) आदिका परित्याग नहीं होते सन्ते परिणाम की अधिकता होजाना तो वृद्धि है जो कि सदृश और विसदृश परिणामस्वरूप है जैसे कि बालक का कुमार आदि अवस्था रूप वृद्धि परिणाम है, यहां बालक की ही कुमार अवस्था में वृद्धि होगयी है जिसके कारण मातृदुग्ध अन्न, जल सूर्याताप, उदराग्नि, बीर्यातरायक्षयोपशम आदि भी कहे जा चुके हैं। . सदृश एवायमित्ययुक्त, विसदृशप्रत्ययोत्पत्तेः । सर्वथा सादृश्ये बालकुमाराद्यवस्थयोः कुमाराद्यवस्थायामपि बालप्रत्ययोत्पत्तिप्रसंगात्, बालकावस्थायां वा कुमारादिप्रत्ययोत्पत्तिप्रसक्तः सर्वथा विसदृश एव बालकपरिणामात्कुमारादिपरिणाम इत्यपि न प्रातीतिकं स एवायमिति प्रत्ययस्य भावात् । भ्रांतोसी प्रत्यय इति चेन्न बांधकामावादान्मनि स एवांह प्रत्ययवत् । सर्वत्र तस्य भ्रांतत्वोपगमे नेरात्म्यवादालंबनप्रसंगः । न चासो श्रेयान् यतश्च सदृशेतरपरिणामात्मनो वस्तुनः साधनात्, प्रत्यभिज्ञानस्याभेद-प्रत्ययस्य प्रामाण्यव्यवस्थापनात् । ततो युक्तः सदृशेतरपरिणामात्मको वृद्धिपरिणामः ।
__वृद्धि नामक विकार को सदृश, विसदृश, दोनों स्वरूप नहीं मानते हुये कोई कहते हैं कि वह वृद्धिपरिणाम तो सदृश ही है वैसा का वैसा हो बालक पुनः कुमार या युवा हाता हुआ बढ़ जाता है कोई विलक्षणता नहीं दीखती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कहना युक्तियोंसे रहित है क्योंकि बालक से कुमार होजाने पर विसदृशपने का ज्ञान भी उपजता है किसी किसी बालक का तो अगली अवस्थाओं में बहुत अन्तर पड़ जाता है यदि बालअवस्था और कुमार आदि अवस्थाओं को सभी प्रकारों से सदृश ही माना जाएगा तो कुमार आदि अवस्था में भी बालक है, ऐसे ज्ञान के उपजने का प्रसंग आवेगा अथवा बालक अवस्था में कुमारपन, युवापन, आदिक ज्ञानों की प्रतीति उपजने का प्रसंग पाजायगा कुमार को बालक या बालक को कुमार कोई नहीं कहता है।
है. इसके विपरीत कोई दूसरे विद्वान् यों कह रहे हैं कि बालक परिणाम से कुमार आदिक परिणाम सर्वथा विसदृश (विलक्षण) ही है । आचार्य कहते हैं कि यह भी सिद्धान्त प्रतीतियों पर आरूढ़ नहीं कहा जासकता है, कारणकि वही बालक कुमार होगया है, इस प्रकारके प्रत्ययका सदाव है ऐसी दशा में बालक से कुमार को सर्वथा विलक्षण नहीं कहा जा सकता । माता, पिता. या अन्य गुरू जन उसी बालक को कुमार, युवा, आदि अवस्था पर्यन्त बढ़ता हुआ देख रहे हैं। यदि कोई पण्डित यों कहे कि वह प्रत्यभिज्ञान स्वरूप प्रत्यय तो भ्रान्त है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस प्रत्यभिज्ञान का कोई वाधक प्रमाण नहीं है, जैसे कि आत्मा में यह वही है इस प्रत्यभिज्ञान के वाधकों