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पंचम-अध्याय
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उत्पाद का परिणापी नहीं माना गया है। यानी एकदिन पहिले मर गये अथवा पचास वर्ष पहिले मर गये बाबा आज इस समय गुड़ को नही खा सकते हैं।
कार्यकारणभाव एव परिणामिभाव इति चेन्न, क्षणिकैकांते कार्यकारणभावस्य निरस्नान क्रमयोगपद्यविरोधान्नित्यत्वैकांतवत् । संवृत्त्या कार्यकारणभावे तु न वास्तवः परिणानिमावः कयोश्चिदिति क्षणिकैकान्तपक्षे परिणामाभावः सिद्धः ।
बौद्ध कहते हैं कि कार्यकारण भाव ही परिणाम परिणामीभाव है। पहिला क्षण कारण है, अतः परिणामी है। और उत्तर क्षण-वर्ती स्वलक्षण कार्य है, अतः परिणाम है । ऐसी अवस्था में हम बौद्धोंके यहां परिणाम बन जायगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कह बैठना क्योंकि क्षणिक पक्ष का एकान्त ग्रहण करने पर कार्य कारण भाव का निराकरण होचुकता है क्योंकि क्षणिक एकान्त में क्रम और योगपद्य होने का विरोध है जैसे कि सर्वथा नित्यपन के एकान्त में क्रम और योगपद्य घटित नहीं होते हैं, अत: काय कारणभावका निराकरण होजाता है। कारक पक्षमें कार्यकारण भावके व्यापक क्रम मौर यौयपद्य हैं जैसे कि ज्ञापक पक्ष में कार्य कारण भाव के व्यापक अन्वय और व्यतिरेक हैं। यदि बौद्ध झूठी कल्पना या व्यवहार से कार्य कारण भाव को स्वीकार करेंगे तब तो किन्हीं एक नियत दो पदार्थों का होरहा परिणाम परिणामी भाव वास्तविक नहीं होसकता, इस प्रकार क्षणिक एकान्त पक्षमें परिणाम होने का अभाव सिद्ध होगया।
संबेदनाद्यद्वैते तु दोत्सारित एव परिणाम इति सकलसर्वथैकांतवादिनां परिणामामा वयभावो अपक्षवाघमावदवतिष्ठते । स्याद्वादिनां पुनः परिणामप्रसिद्धेयुक्ता कस्यद्विद्धिः स्वकारणमनिपातादपक्षयादिवत्तथाप्रतीतेर्वाधकाभावात् ।
* कोई कोई बौद्ध पण्डित तो सम्वेदन, चित्र, आदि का अद्वंत मान बैठे हैं, आचार्य कहते हैं कि सम्वेदन प्रादि के अढ़त पक्ष में तो परिणाम बहुत ही दूर फेंक दिया गया है। एक ही पदार्थ भला क्या प रणाम और परिणामी होसकता है ? यानी देवदत्त का इकलौता लड़का जेठा, मझिला, या कनिष्ठ, नहीं होसकता है। इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वथा एकान्त-वादियों के यहां परिणाम की घटना नहीं होने से वृद्धि का अभाव व्यवस्थित होजाता है, जैसे कि अपक्षय, विनाश, आदि का प्रभाव हो जाता है, हां स्यावादियों के यहां तो फिर परिणाम की समीचीनतया प्रसिद्धि होजाने से किसी प्रश की वृद्धि स्वकीय वृद्धि के कारणों का सन्निपात होजाने से समुचित बन जाती है । जैसे कि अपने अपने कारणों का सान्निध्य होने से अपक्षय, अस्तित्व, आदिक सध जाते हैं । तिस प्रकार की होरही प्रतीति का कोई वाधक प्रमाण नहीं है । जायते, अस्ति, विपरिणमते, वद्धते, अपक्षयते, विनश्यति, अपने अपने कारणों अनुसार होरहे इन छह विकारों की बालक बालिकाओं तक को प्रतीति होरही है। यहाँ तक " परिणामाभावात् वृद्धधभावः सवथैकान्तवादिनः" इस कथन का उससंहार कर दिया गया है। .
परिणामो हि कश्चित् पूर्वपरिणामेन सदृशो यथा प्रदीपादेवालादिः, कश्चिद्विसहशो यथा तस्यैव कज्जलादिः, कश्चित्सदृशासदृशो यथा सुवर्णग्य कटकादिः । तत्र पूर्वसंस्थानावपरित्यागे सति परिणामाधिक्यं वृद्धिः, सदृशेतर परिणामो यथा चालकस्य कुमारादिभावः।