________________
१६४
श्लोक-वातिक
को परिणामपन का विरोध है, जैसे कि प्रधान से अभिन्न होरहा प्रधान का स्वात्मा तो प्रधान ही परिणामी का परिणाम नहीं है। दूसरी बात यह है कि अभिन्न पदार्थ ही यदि परिणाम होने लगे तो महत् आदि के समान उस प्रधान को परिणामपन का प्रसंग पाजावेगा तब तो महत्. अहंकार प्रादि परिणामी होजायंगे और प्रकृति उनका परिणाम बन जावेगी तिस कारण सांख्यों के यहां माना गया प्रधान तो परिणामवाला नहीं घटित होता है। क्योंकि सर्वथा नित्यपन ही उसका एक स्वभाव है, जैसे कि कापिलों के यहां एकान्त से नित्य स्वभाव होने के कारण कूटस्थ प्रात्मा परिणामी नहीं माना गया है ( परार्थानुमान )।
यदि पुनः प्रधानम्य महदादिरूपेणाविर्भावतिरोभावाभ्युपगमात् परिणामित्वमभिधीयते तदा स एव स्याद्वादिभिरभिधीयमानः परिणामो नान्यथेति नित्य वैकांता क्षे परिणामाभावः।
___ यदि फिर कापिल यों कहें कि हम आत्मा के कूटस्थनित्यपन से निराले प्रकार के प्रधान का महत्, अहंकार, तन्मात्रायें, पादिरूप करके आविर्भाव और तिरोभाव को स्वीकार करते हैं, हाँ उत्पाद या विनाश हमको अभीष्ट नहीं है अतः आविर्भूत, तिरोभूत होरहे अपने अभिन्न परिणामों के अनुसार प्रधान का परिणामीपना कहा जाता है। प्राचार्य कहते हैं कि तब तो स्याद्वादियों करके वही परिणाम कहा जा रहा है, प्रकट होजाना, छिप जाना आदि अन्य प्रकारों से परिणाम नहीं बनता है। अर्थात् आविर्भाव, तिरोभाव,का अर्थ कथंचित् उत्पाद, विनाश, मानने पर ही निश्चिन्तता होसकेगी। अन्न में मांस या मल का सद्भाव मानना अनुचित है, अंगुलीके अग्रभाग पर हाथियों के सौ झुण्डों का समा जाना स्वस्थ पुरुष नहीं कह सकता है अतः स्याद्वाद सद्धान्त अनुसार ही परिणाम बनता है। नित्यपन के एकान्त पक्ष में परिणाम का अभाव है “न हि नित्यैकान्ते परिणामोऽस्ति" यहा से प्रारम्भ कर अब तक इस प्रकरण का विवरण कर दिया है।
क्षणिककांतेपि क्षणार्ध्वस्थितेरभावात् परिण माभावः, पूर्वक्षणे निरन्वयविनाशादुत्तरक्षणोत्पादः परिणाम इति चेत्, कस्य परिणामिन इति वक्तव्यं ? पूर्वक्षणस्यवेति चेन्न, तम्यात्यंत विनाशात्तदपरिणामित्वाच्चिरतनविनष्टक्षणवत् ।
सम्पूर्ण पदार्थों को एकक्षणस्थायी मानने के एकान्त पक्ष में भी परिणाम नहीं बनता है। क्योंकि क्षण से ऊपर दूसरे समयों में पदार्थों को स्थिति का अभाव है, ऐसी दशा में कौन किस स्वरूप परिणमै ! जो जीवित रहेगा वह प्रानन्द भोग सकेगा, मरेहुये पदार्थ के लिये कुछ भी नहीं है। यदि बौद्ध यों कहैं कि पहिले क्षण में अन्वयरहित होकर पदार्थ का विनाश होजाने से उत्तर-वर्ती दूसरे क्षण में नवीन पदार्थ का उत्पाद होना परिणाम है, यों कहने पर तो हम जैन पूछते हैं कि वह उत्तर क्षण-वर्ती उत्पाद भला किस परिणामी का परिणाम है ? यह तुमको स्पष्ट कहना चाहिये यदि पूर्व क्षणवर्ती पदार्थ का ही परिणाम वह उत्तर क्षण-वर्ती उत्पाद माना गया है, यह तो आप वौद्ध नहीं कह सकते हैं। क्योंकि उस पूर्व क्षण-वर्ती पदार्थ का अत्यन्त रूप से अनन्त काल तक के लिये विनाश होचुका है, अतः वह पूर्व क्षण-वर्ती पदार्थ इस उत्तर क्षण-वर्ती पदार्थका परिणामी नहीं होसकता है। जैसे कि बहुत काल पहिले विशेषतया नष्ट हाचुका क्षण ( स्वलक्षणपदार्थ ) इस वर्तमान कालीन