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श्लोक- वार्तिक
नास्तीति प्रत्ययविषयरूपसद्भावान्न नीरूपत्वमिति चेत् तर्हि भावस्वभाव एव विनाश: स्वभाबत्वादुत्पादवत् । प्रागभावेतरेतराभावात्यन्ताभावानामप्यनेनैव भावम्वभावता व्याख्याता ।
यदि वैशेषिक यों कहैं कि "ध्वंस रूप प्रभाव है" ऐसी प्रतीतिका विषय होनेसे विनाश पदार्थ तो भाव पदार्थों से न्यारा है । यों कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि उस प्रतीतिसे यदि ध्वंस को प्रभाव स्वभाव वाला माना जायगा तो नीरूपपने का प्रसंग प्रावेगा यानी उस तुच्छ ध्वंस के कोई भी स्वभाव या धर्म नहीं होने के कारण वह ध्वंस निस्स्वभाव होजायगा निस्स्वभाव पदार्थ खरविषाणवत् असत् है, फिर भी वैशेषिक यों कहैं कि "नहीं है" इस प्रकार के ज्ञान की विषयता ध्वंस में है अतः ध्वंस के उस विषयतास्वरूप धर्म का सुभाव होने से नीरूपपन यानी स्वभावरहितपन का प्रसंग नहीं आवेगा । यों कहने पर हम जैन कहेंगे कि तब तो विनाश पदार्थ भाव का ही स्वभाव रहा ( प्रतिज्ञा ) स्वभाव होने से ( हेतु ) उत्पाद के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । श्रतः उत्तर पर्यायस्वरूप ही पूर्व पर्याय का वि नाश है जो कि विनाश स्वरूप परिणाम उस पूर्व कालीन परिणामी से विसदृशपरिरणाम स्वरूप है । इस उक्त कथन करके ही प्रागभाव श्रन्योन्याभाव और प्रत्यन्ताभावका भी भावस्वभावपना वखान दिया गया है अर्थात् प्रागभाव ग्रादिक चारों प्रभाव भावस्वरूप ही पड़ते हैं. इसका निर्णय ग्रन्थकार ने प्रष्टसहस्री ग्रन्थ में अच्छा कर दिया है । 'कार्यस्य श्रात्मलाभात्प्रागभवनं प्रागभावः " कार्य के श्रात्मलाभ से पहिले काय का नहीं होना प्रागभाव है, जो कि कार्य के श्रव्यवहित पूर्व वर्त्ती या कायके सम्पूर्ण पूर्व वर्त्ती परिणामों स्वरूप है । ऋजुसूत्रनयार्पणात् उपादानक्षरण एवोपादेयस्य प्रध्वंस, ऋजुसूत्र नय की पेक्षा उपाय परिणाम का उत्पाद ही पूर्व समय वर्त्ती उपादान का प्रध्वंस है। 'स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिः अन्योन्याभाव:" किसी दूसरे स्वभाव से प्रकृत स्वभाव की व्यावृत्ति होना अन्योन्याभाव है जैसे घट पट नहीं हैं यों घट या पट की स्वकीय परिणतियों स्वरूप ही अन्योन्याभाव है, याद स्वभावान्तरों से स्वभावकी व्यावृत्ति कालत्रय वृत्ति होजाय तो वे आत्मा, आकाश आदिकी मिथः परिणतियां श्रत्यन्ताभाव समझी जाती हैं। संक्षेप से प्रभावों को भाव रूप इसी ढंगसे समझ लिया जाय । यों वृद्धि, अपक्षय, जन्म और विनाश इन चार परिणामों ( विकारों) के सदृशपन या विसदृशप अथवा उभयपन का विचार कर दिया गया है ।
ननु च यथा स्वभाववच्त्वाविशेषेपि घटग्टयोर्नानात्वं विशिष्टप्रत्ययविषयत्वात्तथा भावाभावयोरपि स्यादिति चेन्न, घटस्वेन वा स्वभाववस्वस्याव्याप्तत्वाद् घटस्य पटान्मक-वासिद्धः, पटस्य वा घटात्मकत्वानुपपत्तेः कथचिन्नानात्वव्यवस्थितेः । भावात्मकत्वेन तु स्वभावतः स्य व्याप्तिसिद्धे सर्वत्र भावात्ममतरेण स्वभाववस्त्राप्रसिद्ध रभावस्य ततो भावात्मकत्वमिद्ध रेप्रांतबंधनात् । तत्र विशिष्टप्रत्ययस्तु पर्याय विशेषादुपपद्यते एव घटे नवपुराणादिप्रत्ययवत् य घटो नवः पुराण इति विशिष्टप्रत्ययतामात्ममात्कुर्वन्नपि घटात्मतां न जहाति तथा भागेस्ति नास्तीति विशिष्टप्रत्ययं विषयता स्वीकुर्वन्नपि न भावत्वम विशेष' त्
यहाँ वैशेषिकों का पुनः स्वमन्तव्य अवधारण है कि स्वभावसहितपन के विशेषता रहित होते हुये भी घट और पट में सिस प्रकार विशिष्ट ज्ञान का विषय होजाने के कारण नानापन है, शीतको पट दूरकर देता है, कपड़ा तोड़ा मरोड़ा जा सकता है, घट नहीं । घट पानीको धारता है, कठिन है, पट