________________
पंचम अध्याय
श्रादिक के रस वृद्धि को कर लेते है उस में बीज क्या कर लेता है ? कुछ भी नहीं । श्रतः वीज का परिणाम इतना बढ़ा हुआ प्रकुर कथमपि नहीं हो सकता है । प्राचार्य कहते हैं कि यह उन पण्डितों का वचन तत्त्वोंकी नहीं पर्यालोचना करते हुये होरहा है, समीचीन विचार करने पर वे ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि बीज का परिणाम अंकुर है किन्तु उस अंकुर की वृद्धि का कारण कोई अन्य ही है, उसको यो स्पष्ट समझिये |
१७६
यथामनुष्यनामायुःकर्मोदय विशेषतः ।
जातो बालो मनुष्यात्मा स्तन्याद्याहारमाहरन् ॥३४॥ सूर्यातपादिसापेक्षः कायाग्निबलमादधन् । वीयतरायविच्छेद विशेषविहितोद्भवं ॥ ३५ ॥ विवर्धते निजाहाररसादिपरिणामतः । निर्माण नामकर्मोपष्टंभादभ्यंतरादपि ॥ ३६ ॥ 'तथा वनस्पतिर्जीवः स्वायुर्नामोदये सति । जीवाश्रयों कुरो जातो भौमादिरममाहरन् ॥३७॥ तप्तायस्पिंडवत्तोयं स्वीकुर्वन्नेव वर्धते । आत्मानुरूपनिर्माणनामकर्मोदयानुवम् ॥ ६८ ॥
इस कारिका में पढे गये 'यथा' का इसके आगे सेंतीसवीं वार्तिक्रमें कहे जाने वाले ' तथा ' शब्दके साथ अन्वय है । जिस प्रकार मनुष्य गति नामकर्म और मनुष्य आयुः कर्म का विशेष रूप करके उदय हो जाने से मनुष्य आत्मा बालक उपज जाता है वह बालक मातृ दुग्ध, गोदुग्ध, आदि श्राहारका श्राहार लेता हुआ और वहिरगमें सूर्य के आतप आदि की अपेक्षाको धार रहा सन्ता शरीरकी उदराग्नि अनुसार और अन्तरंग में वीर्यान्तराय कर्मके किये गये विशेष क्षयोपशम से उत्पन्न हुये बलका प्रधान करता हुआ बढ़ता रहता है तथा अपने आहार किये गये पदार्थ के रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि मज्जा, शुक्र आदि परिणामों से और अभ्यन्तर में हो रहे निर्माण नाम कर्म के उदय का उपष्टम्भ हो जाने से भी बालक बढ़ता चला जाना है, उसी प्रकार वीज में कारणवश जन्म ले चुका वनस्पतिकायिक जीव भी अपने आयुष्य व नामकर्मका उदय होने पर जीव का श्राश्रय होरहा वही वीज अथवा वीज का आश्रय होरहा वह जीव भला मिट्टी, जल, प्रादि के रसों का आहार करता हुआ अंकुर होजाता है जैसे तपाया गया लोहे का पिण्ड सब ओर से जल को खींच कर अपने प्रात्मसात् कर लेता है उसी प्रकार वह वीज में बैठा हुश्रा जीव पृथिवी, जल-सम्बन्धी रसों के आहार को स्वीकार करता हुआ ही अंकुर रूप करके बढ़ जाता है, अन्तरंगमें अपने अनुकूल निर्मारण नामकर्मका उदय भी निश्चित रूप से अपेक्षणीय है, अन्तरंग, बहिरंग दोनों कारणों के मिलने पर कार्य सिद्धि होती है, ग्रन्थथा नहीं, अतः केवल बीज ही स कुर