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________________ १७६ श्लोक-वातिक का प्रकरण मिलने पर वनस्पतिकायिक जीव वहां जन्मता है पश्चात्-उसके अकुर, पते, शाखा, उपशाखा, आदि परिणाम होते रहते हैं एकेन्द्रिय जाति, तिथंचायु आदि कर्मों के अधीन होरहा वह जीव वीज, अकुर, प्रादि परिणामों को धारता है, अतः अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्यकी अपेक्षा वह सत् है और पूर्वापर परिणामों के संक्रमण आदि की अपेक्षा असत् है। यों व्यवस्थित और अव्यवस्थित पक्षों में अनेकान्त का साम्राज्य है। ___ स्यान्मतं, न वीजमंकुरादित्वेन परिणमते वृद्धथभावप्रसंगात् यो हि यत्परिणामः स न ततो वृद्धिमान् दृष्टो यथा षयः-परिणामो दध्यादिः,वीजपरिणामश्चांकुरादिस्तम्मान ततो वृद्धिमान् इति वीजमात्रमंकुगदिः स्यादतत्परिणामो वेति । उक्तं च-"किं चान्यद्यदि तद्वीज गच्छेदंकुरतामिह । विवृद्धिरंकुरस्य स्यात्कथं वीजादपुष्कलात् । अथेष्टं तै रसैौमैरौदकैश्च विवर्धते । नन्वेवं सति वीजस्य परिणामो न युज्यते ॥ आलिप्तं जतुना काष्ठं यथा स्थूलत्वमृच्छति । तनु काष्ठं तथैवास्ते जतु चात्र विवर्धते । तथैव यत्र तद्वीजमास्ते येनात्मना स्थितं । रसाश्च वृद्धिं कुर्वति वीजं तत्र करोति किम् ॥ इति तदेतदनलोचिततत्ववचनं, तबुद्धरन्यहेतुकत्वात् । परिणाम होने का निराकरण करने वालों का स्यात् यह भी मन्तव्य होवे कि वीज तो (पक्ष) प्रकर प्रादिपने करके नहीं परिणम सकता है ( साध्य ) क्यों कि वृद्धि के प्रभाव का प्रसंग होजावेगा (हेतु ) । देखो जो पदार्थ जिस परिणाम कोधारता है वह परिणाम उस परिणामी पदार्थ से वृद्धिवाला नहीं देखा गया है जिस प्रकार कि दूध का परिणाम दही या विलोडित तक प्रादिक उतने ही परिणाम वाले रहते हैं बढ नहीं जाते हैं, पातानवितानीभूत तन्तनों से पट का परिणाम बढ़ नहीं सका है व्या प्तिपवक दृष्टान्त) वीज का परिणाम जब अकुर प्रादिक माने जा रहे हैं ( उपनय ) ति कारण उस वीज से अंकुर प्रादिक वृद्धि को लिये हुये नहीं होने चाहिये। ___इस अनुमान अनुसार वीजके परिभाणवरावरही उसके अकुर आदि परिणाम होने चाहिये किन्तु वीजसे मकुर,लघुवृक्ष,ग्रादि परिणाम बहुत बढ़े हुये देखे जाते हैं अतः वे वीजके परिणाम नहीं होसकते हैं हमारे इस तर्क अनुसार अन्य ग्रन्थों में भो यो कहा है कि दूसरी बात यह है कि वह वीज यदि यहां अंकरपने को प्राप्त होजायगा तो ऐसी दशा मे उस छोटे वीज से भला अकूर की विशेषवाद किस प्रकार होसकेगी? इस पर अब कोई यों इष्ट करें कि भूमि-सम्बन्धी और जल सम्वन्धी रसों करके वह अंकुर बढ़ जाता है यानी वीज में भूमि रस और जलरस मिलजाते हैं, अतः रत्ती भर के वीज से एक तोला या एक छटांक का अंकुर बढ़जाता है, ऐसी दशा में हम आक्षेपकार अनुनय करते हैं कि इस प्रकार होने पर तो वीज का परिणाम वह अकुर होय यह उचित नहीं है । यो तो भूमि,जल, और बीज इन तीनों का परिणाम अकुर कहा जा सकेगा, अकेले वीज का परिए राम मंकुर नहीं होसकेगा जिसप्रकार कि रोगन या लेप करने पर लाख करके चारों ओर से लीप दिया गया काठ स्थूल पन को प्राप्त होजाता है किन्तु सच पूछो तो वह काठ तिस ही प्रकार पतला भीतर बना, रहता है, इस काठ में तो लाख बढ़ जाती है, रूई के भरे गूदड़ वस्त्रों को पहिनने वाला मनुष्य मोटा नहीं कहा जासकता है तिस ही प्रकार महां वह वीज जिस स्वरूप से हो रहा विद्यमान है वह उतना ही बना रहेगा हाँ पृथिवी
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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