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पंचम-अध्याय
आदिक पूर्व पूर्व भावों करके वह जीव परले२ भावोंमें व्यवस्थित होरहा नहीं देखा जा रहा है। अर्थात् अन्वित भावों करके सम्पूर्ण परिणामों में जीव ओत पोत होरहा है। किन्तु व्यतिरेको पर्यायों करके पहिली पिछली पर्यायोंमें कोई पर्याय व्यवस्थित नहीं है, पहिले 'यथा' का यहाँ 'तथा' के साथ अन्वय है उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीब भी अपने योग्य नाम कर्म और विशेष प्रकार की तिथंच आयु का उदय होने से वनस्पतिपन, जीवपन, चेतनत्व, आदि अन्वयों करके अपने शरीर के विवर्त्त होरहे वोज आदिकों में व्यवस्थित है किन्तु क्रम से होने वाले पूर्व पूर्व भावों करके तो परले परले भावों में व्यवस्थित नहीं है। पर्यायों में द्रव्य तो अन्वित होता है, पर्यायों में अगली, पिछली पर्याय प्रोत, प्रोत नहीं घुसी रहती हैं " सर्वं सर्वत्र विद्यते" यह सांख्य का सिद्धान्त अनेक दोषों से भरपूर है।
भावार्थ -इस मनुष्य शरीर की गर्भमें ही अनेक अवस्थाएं होजाती हैं सुश्रुत में लिखा हुआ है___ 'प्रथमे मासि कललं गायते, द्वितीये शोतोष्णानिलैरभिप्रपच्यमानानां महाभूतानां सङ्घातो घनः सजायते, यदि पिण्ड: पुमान स्त्रीचेत् पेशी नपुंसकञ्चेदर्बुदमिति । तृतीये हस्तपादशिरसां पचपिण्डका निवर्ततेऽङ्ग-प्रत्यङ्गविभागश्च सूक्ष्मो भवति । चतुर्थे सर्वांग-प्रत्यंग विभागः प्रव्यक्ततरो भवति, गर्भहृदय-प्रव्यक्तभावाच्चेतनाधातुरभिव्यक्तो भवति कस्मात् तत्स्थानत्वात्तस्माद्गर्भश्चतुर्थेमास्यभिप्रायमिन्द्रियार्थेषु करोति द्विहृदयां च नारी दौहृदनीमाचक्षते । पंचमे मनः प्रतिबुद्धतर भवति, षष्ठे बुद्धिः सप्तमे सर्वांग-प्रत्यंगावभागः प्रव्यक्ततरः । अष्टमेऽस्थिरीभवत्योजः, नवमदशमैकादशद्वादशानामन्यतमस्मिन् जायते ।" चरक संहिता में यो उल्लेख है " स तु सवगुणवान् गभत्वमापन्नः प्रथम मासि समूछितः सवधातु-कलनीकृतः खेटभूतो भवत्यव्यक्त-विग्रहः सदसद्भूतांगावयवः, द्वितीये मासि घनः सम्पद्यते पिण्ड: पेश्यकुंदवा तत्र घनः पुरुषः स्त्री पेशी अवि॒दं नपुसकम्, तृतीय मासि सर्वेन्द्रियाणि सर्वांगावयवाश्च योगपद्यनाभिनिवर्तन्ते, चतुर्थे मासि स्थिरत्वमापद्यते गभः, पंचमे मासि गभस्य मांसोणतापचयो भवत्यधिकमन्येभ्यो मासेभ्यः, षष्ठे मासि गर्भस्य बलवोपचयो भवत्याधकमन्येभ्यो मासेभ्यः, सप्तमे मासि गभः सर्वैर्भावराप्यायते सहसा, अष्टमे मासि गर्भश्च मातृतो गर्भतश्च माता रसहारिणीभिः संवाहिनीभिमुहुरोजः परस्परत प्राददाते" । वाग्भटकृत अष्टांगहृदय के शारीर-स्थान में गर्भ की अवस्थाओं का यों निरूपण किया है।
"अव्यक्तः प्रथमे मासि सप्ताहात्कललो भवेत् । गर्भः पुंसवनान्यत्र पूर्व व्यक्तेः प्रयोजयेत् । द्वितीये मासि कललाद्धन: पेश्यथवाऽव॒दम् । पुस्त्रीक्लीवाः क्रमात्तेभ्यः, । व्यक्ती भवति मासेऽस्य तृतीये गावपंचकम्,। चतुर्थे व्यक्ततांगानां चेतनायाश्च पंचमे। षष्ठे स्नायु शिरारोम-बलवर्णनखत्वचाम् । सर्वैःसर्वांगसम्पूर्णो भावैः पुष्यति सप्तमे। प्रोजोऽष्टमे संचरति माता पुत्रौ मुहुः क्रमात् । शस्तश्च नवमे मासि।
तात्पर्य यह है कि कलल, अर्बुद आदि गभ के परिणामों और जन्म के पोछे बाल, कौमार, युवत्व, आदि परिणामोंमें जीवत्व, जैसे व्यवस्थित है उसीप्रकार वीज, अंकुर आदिमें वनस्पति कायिकत्व आदि धर्म व्यवस्थित हैं । जैन सिद्धान्त अनुसार परिणामों की उत्पत्ति का क्रम यही है कि पहिले शक्रशोणितका गरण होने पर वह पूद्गलपिण्ड अचेतन रहता है पश्चात् उसमें कहीं अन्य गति से मा. कर मनुष्य जन्म लेता है । जीव के पुरुषार्थ और कर्मोके उदय अनुसार उस पुद्गल पिण्डके मरण अवस्था तक अनेक परिणाम होते रहते हैं इसी प्रकार अचेतन वीज में क्षिति, सलिल, आदि योग्यकारणों
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