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________________ १७० श्लोक-बातिक की अथवा जीवपुरुषार्थकी अपेक्षा रखकर वे परिणाम उत्पन्न हुये हैं तथा अचेतन द्रव्य पुद्गलका-प्रयोगजन्य परिणाम तो घट की रचना, पट कीरचना, आदि हैं क्योंकि कुम्हार, कोरिया, आदि पुरुषो के प्रयोग की इनकी उत्पत्ति में अपेक्षा रहती है हां अचेतनद्रव्यों में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का वैस्रसिक अनादि कालीन परिणाम तो असंख्येयप्रदेशीपना, नित्यपना. अवस्थितपना. रूपरहितत्व प्रादि हैं, हां प्रतिनियत होरहे अश्व आदि की गति में अनुग्रह करने का हेतुपन या वृक्षों की स्थिति करने में अनुग्राहकपन आदिक तो आदिमान वैस्रसिक परिणाम हैं धर्मास्तिकाय आदिके इन परिणामोंकी उत्पत्ति में किसी जीवके प्रयत्नकी पावश्कता नहीं है। हां धर्मास्तिकाय प्रादि अचेतन द्रव्योंके प्रयोगजन्य परिणाम तो इस प्रकार हैं कि छापने, सीने प्रादि के यंत्र मशीनें ) बैलगाडी. प्रादि के गति उपग्रह का हेतुपना धर्म का अथवा चलतेहुये घोड़े के ठहरने पर स्थिति का अनग्राहकपन अधर्म द्रव्यका, ठोंकी जारही कील को अवगाह देना आकाश का, व्यायाम द्वारा शरीर की वर्तना काल का अनुग्रह है क्योंकि इन परिणतियों के उपजने में जीवों के प्रयोगों की सहकारित्वेन अपेक्षा है। समर्थोपि बहिरंगकारणापेक्षः परिणामत्वे सति कार्यत्वात्, ब्रीह्यादिवदिति यत्तस्कारणं वाह्यं स कालः। - ये कहे जा चुके वैससिक और प्रयोगजन्य विकार यद्यपि समर्थ हैं यानी अपने उपादान कारण उस द्रव्य को अन्तरंग कारण मानते हुये उपजाते हैं फिर भी विकार ( पक्ष ) वहिरंग कारण की रखता है ( साध्य) परिणाम होते सन्ते कार्य होने से देत) धान चावल. मंग आदि के समान अर्थात्-जैसे चावल या मूग में पकने की शक्ति अन्तरंग में विद्यमान है तथापि जल, अग्नि, आतप, आदि वहिरंग कारण मिलने पर ही उनका परिपाक होता है। यहां प्रकरण में जो उनका वहिरंग कारण है, वही काल द्रव्य है यह समझाना है। परिणामोऽसिद्ध इति चेन्न, बाधकामावात परिणामस्याभावः सत्यासत्ययोर्दोषोपपत्तेरिति चेन्न, पक्षान्तरत्वात् । न हि सन्नेव वीजादावंकुरादिः परिणामस्तत्परिणामत्वविरोधाद्वीजस्वात्मवत् । नाप्यसन्नेव तत एव खरविषाणवत्। किं तर्हि १ द्रव्यार्थादेशात् सन् पर्यायार्थादेशादसन् न चोभयपक्षभावी दोषोत्रावतरति सदसदेकांतपक्षाभ्यामनेकांतपक्षस्यान्यत्वात् हिंसकत्वपाग्दारिक-वाभ्यामहिमकापारिदारिकत्ववत् वियुक्तगुडशुठीभ्यां तन्संयोगवद्वा जात्यंतरत्वाच्च रसांतरसंभवात् । एतेन विगंधादयः परिहताः दृष्टव्याः।। ___ यहां कोई कूटस्थनित्यवादी पण्डित प्राक्षेप करता है कि द्रव्यों का परिणाम होना ।सद्ध नहीं होपाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि परिणामों के सद्भाव का कोई वाधक प्रमाण नहीं है। अनेक घट, पट, पुस्तक, क्रोध, मतिज्ञान आदि परिणामों का साक्षात्कार होरहा है। पनः प्राक्षेपकार पण्डित कहता है कि परिणाम का जगत में अभाव है क्योंकि सद्भाव मानने पर और असद्भाव मानने पर अनेक दोष उपस्थित होजाते हैं । देखिये वीज अकुर-स्वरूप करके परिणत माना जाता है, यहां हम कूटस्थ-वादी जैनों से पूछते हैं, कि यदि अकुर अवस्था में बीज है। तब तो अंकुर का अभाव होगया । जैसे कि पहिले वीज अवस्था में अंकुर नहीं था, दो अवस्थायें एक साथ नहीं ठहर पाती हैं। यदि अंकुरमें वीज का प्रसत्व माना जाना जायगा तब तो अंकुर रूप से वीज की परिणति
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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