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________________ पंचम-अध्याय नहीं घटित होती है। क्योंकि अकुर में वीजपन स्वभाव का अभाव है, अतः सद्भाव या असद्भाव दोनों पक्षों में दोष खड़ा होजाता है ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि सर्वथा सद्भाव और सर्वथा असद्भाव इन दो पक्षों से निराला तीसरा कथंचित् सदसत्वका पक्ष हमने ग्रहण किया है। वीज भविष्यमें अंकुर होनेवाला है । बालक आगे जाकर युवा होजायगा यहां हम वीज आदिमें प्रकुर आदि परिणामों को सर्वथा विद्यमान होरहे ही नहीं मानते हैं। यदि वीज अवस्था में भी अंकुर अवस्था मान ली जाय तो अकुर को उस वीज का परिणाम होने का विरोध होजावेगा जैसे कि वीज की निज प्रात्मा का परिणाम वीज ही है, अकुर नहीं। दुग्ध काल में अविद्यमान होरहा दही तो दूध की पर्याय कही जा सकती है, विद्यमान दूध की स्वाःमा ही तो दूध का विपरिणाम नहीं है. तथा बीज प्रादिक में सर्वथा असत् ही मान लिया गया भी अकुर आदिक उसका परिणाम नहीं होसकता है। तिस ही कारण से यानी उस वीज के परिणाम होजाने का अंकुर को विरोध पाजाने से ( हेतु ) जैसे कि वीज में सर्वथा अविद्यमान होरहा खरविषाण बीज का परिणाम नहीं है । यदि यहां कोई यों पूछे कि परिणामी में सद्भूत माना जा रहा भी परिणाम नहीं है, और परिणामीमें अविद्यमान होरहा भी परिणाम उसका परिणाम नहीं है तो परिणामी में कैसा क्या होरहा परिणाम उसका परिणाम कहा जायगा? बतायो । इसके उत्तर में हम जनों को यही कहना है । कि द्रव्याथिक नय द्वारा कथन करने से परिणामी में परिणाम सत है। तभी तो कारण मिलने पर परिणामी झट उस परिणाम स्वरूप परिणत होजाता है। और पर्यायाथिक नय द्वारा कथन करने से परिणामी में परिणाम का सद्भाव नहीं है, तभी तो उस असद्भूत परिणाम को उपजाने के लिये कारणकूट जोड़ना पड़ता है। भावार्थ-परिणाम होने का द्रव्य सतत विद्यमान है, किन्तु वह पर्याय विद्यमान नहीं है। धार्मिक पुरुष पर्वके दिनोंमें एकाशन करता है, रोटी, दाल, दूध पानी आदि खाद्य पेय द्रव्यों में आहार वर्गरणायें विद्यमान हैं। उन खाद्य पदार्थों की उदराग्नि, पर्याप्ति, आदि करके कुछ देर में मांस. रक्त. अस्थि. मल, मूत्र, स्वरूप परिणति होजावेगी किन्तु भोजन करते समय वह मांस, रक्त, आदि पर्याय खाद्य पदार्थों में विद्यमान नहीं है, यही सांख्य सिद्धान्त और जैन सिद्धान्त में अन्तर है अतः उस ब्रती के व्यवहार चारित्र में कोई दोष नहीं लगता है। व्यवहार चारित्र की भित्ति पर्यायार्थिक नय अनुसार उनउन विशेष पर्यायों पर डटी हुई है, द्रव्याथिक नय का विषय यहां गौण पड़ जाता है, अाहारवर्गणा ही तो रक्त, मांस, आदि रूप परिणति करने वाली है, प्राकाशकी रोटी, दाल, रस, रक्त आदि स्वरूप परिणति नहीं होसकती है। स्वस्त्री-सन्तोष या अचौर्यव्रत भी पर्यायदृष्टि से ही पलते हैं, अन्यथा अन्य भी अनेक स्त्रियां भूत पूर्व जन्मोंमें ब्रतीकी बल्लभायें बन चुकी हैं। दूसरोंका धन भी पूर्व जन्मोंमें व्रती का होचुका होगा तब तो उन के ग्रहण में दोष नहीं होना चाहिये : बात यह है कि सर्वथा सद पक्ष और सर्वथा असत् पक्ष इन दोनों पक्षो में होने वाले दोष का यहां कथंचित सत्त्वासत्व पक्ष में अवतार नहीं होपाता है। क्यों क सत् एकान्त का पक्ष और असद एकान्त का पक्ष इन दोनों पक्षों से कथंचित् सदसत् इस अनेकान्त पक्ष का भेद भाव है जैसे कि हिंसकपन, और परदारा-सेवीपन दोषों से अहिंसकपन और परदारात्यागीपन गुण विभिन्न है। अर्थात्-कतिपय हिंसक जीव भले ही परदारा-सेवी नहीं होंय क्योंकि हिंसक के कर परिणाम होते हैं और परदार-सेवन में स्नेहपुज की आवश्यकता है। अथवा कतिपय परदार-सेवी जीव भले ही हिंसक नहीं होंय क्योंकि हिंसकके लिये क्रूर भावों की आवश्यकता होजाती
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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