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________________ १६८ श्लोक-वार्तिक जाता है, जो अन्य द्रव्यं करके की गयीं कार्यरूप ही वर्तनायें हैं। वे ही पकड़ी जायंगी, स्व करके की गयीं अथवा जो कथंचित् कारण भी होसकती है, वह काल वतना नही ली जासकेगी कार्य कहने से कारणत्व से रीते कार्य ही ग्रहण किये जासकते हैं। जब कि सम्पूर्ण वृत्तिमान् पदार्थोकी युगपत् वृत्तिकराने में कारण कालवृत्ति है इस कारण अकाल वृत्ति यह विना कहे ही आजाता है । अकालवृत्तित्वे सति यह विशेषण विना कहे ही सामर्थ्य से लब्ध हो ही जाता है। ___ अर्थात्-कूटस्थ काल द्रव्य तो अन्य द्रव्यों के वर्ताने में कारण नहीं है स्वयं अपनी वर्तना कर रहा ही काल दूसरों का वर्तयिता है, अतः काल के समान काल को स्वयां वर्तना भी अन्य द्रव्यों के वर्ताने में प्रयोजक हेतु होजाती है, धम और धर्मी में कथंचित् अभेद है। जब “कालवृत्तिभिन्नत्वे सति" इतना विशेषरण स्वतः ही प्राप्त होगया तो जैनों के ऊपर हेत्वन्तर नामक निग्रहस्थान नहीं हुआ । प्रकरणप्राप्त हेतु में विशेष की रक्षा रखने वाले वादी के ऊपर हेत्वन्तर निग्रह स्थान उठा दिया जाता है, " अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्ध विशेषमिच्छतो हेत्वन्तर" यह गौतमसूत्र है जिस प्रकार किसी ने अनुमान कहा कि शब्द अनित्य है। क्योंकि उसका वाह्य इन्द्रियद्वारा प्रत्यक्ष होता है, किन्तु नित्य मानी गयी शब्दत्व जातिका भी वाह्य इन्द्रिय करके प्रत्यक्ष होता है। अतः प्रतिवादीने शब्दत्व जाति करके व्यभिचार उठा दिया ऐसी दशा में वादी " सामान्यवत्वे सति " यह विशेषण लगा देता है सामान्य में पुनः दूसरा सामान्य नहीं टिकता है, अतः शब्दत्व सामान्य सामान्यवान् नहीं है, यों व्यभिचार दोष तो टल गया किन्तु वादा का हेत्वन्तर नामक निग्रह-स्थान होगया। इस प्रकार हम जैनों के ऊपर यह हेत्वन्तर निग्रहस्थान नहीं लागू होता है क्योंकि हमने हेतु में कोई विशेष अंश नहीं जोड़ दि ग है " कालवर्तनाभिन्नत्वे सति " इतना कार्यत्व हेतु का विशेषण ता ग्रन्थकार के अभिप्राय में पहिले ही से था जैसे कि " पवतो वन्हिमान् धूमात् " यहां “ संयोग सम्बन्धेन " यह विशेषण तो अनुमान प्रयोक्ता को प्रथम से ही अभिप्रेत है । उसको शब्द से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है, अन्यथा समवाय सम्बन्ध से धम अपने अवयवों में रहा वहां वन्हि के नहीं वतने से व्यभिचार दोष आजाता। प्रकरणप्राप्त कार्यत्व हेतु में कोई नवीन विशेषण लगाने को इच्छा नहीं की गई है। नन्वेवं कालवृत्ते र कार्यत्वं तया व्यभिचाराभावादनर्थकं विशेषणोगदानामनि चेन्न, पर्यायार्थादेशात्कार्यत्वस्य तत्र भावात्तया व्यभिचारप्रसंगात् तत्परिहारार्थ विशेषगोपादानस्यानर्थकत्वायोगात् । ततो वर्तनोपका : कालसत्तां साधयत्येव । पुनः कोई पण्डित अनुनय करते हैं कि कालकी वर्तना जब कार्य ही नहीं है तो कार्यत्व हेतु के नहीं ठहरने पर उस कालवृत्तिकरके व्यभिचार होजाने का अभाव है, अत: "अकाल वृत्तित्वे सति इस विशेषणका हेतु दलमें उपादान करना व्यथ है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योकि पर्यायार्थिक नय करके कथन करने से उस कालवर्तनामें कार्यत्व हेतुका सद्भाव है । पर्यायाथिकनयसे सम्पूर्ण पदार्थ कार्य हैं अतः उस कालवर्तना करके व्यभिचार होजानेका प्रसंग प्राजाता है, उस व्यभिचार दोष का परिहार करने के लिये अकाल मृत्तित्वे सति इस विशेषण के ग्रहण करने को व्यर्थपन का प्रयाग है। यानी विशेषण लगाना सार्थक है। तिस कारण से सिद्ध होता है कि वर्तना नामका उपकार यह ज्ञापक हेतु उस प्रतोन्द्रिय परमार्थ काल को सत्ता को साध हो देता है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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