________________
पंचम-अध्याय
अथवा “ कार्यत्वात् " इतना ही हेतु नहीं समझा जाय " अकालवृत्तित्वे सति " यह विशेषण जोड़ दिया जाय काल वर्तना ही व्यभिचार स्थल होसकता है। अतः तद्भिन्नत्व का निवेश कर देना उचित है, बिना कहे ही शब्दों की सामर्थ्य से यह निर्णीत कर लिया जाता है कि ग्रन्थकार ने यहां कालवर्तना से भिन्न होते हुये कार्यपना यों विशेषणसहितहेतु कहा है। जैसे कि किसी ने यह अनुमान कहा कि पृथिवी, जल आदिक पदार्थ ( पक्ष) स्व से भिन्न होरहे ज्ञान करके जानने योग्य हैं ( साध्य ) प्रमेय होने से ( हेतु ) यों केवल प्रमे त्व हेतु कह देने पर भी ज्ञानभिन्नत्वे सति यह विशेषरण विना कहे ही जान लिया जाता है। अन्यथा स्वयं अपने आप वेदे जारहे ज्ञान करके व्यभिचार दाष होजाने का प्रसंग पाजावेगा, प्रमेय तो ज्ञान भी है किन्तु वह स्व से निराले अन्य ज्ञान करके वेद्य नहीं है। ज्ञान तो स्वसम्वेद्य है।
गम्भीर विद्वानों के वाक्य सोपस्कार होते हैं, अभिप्राय को नहीं समझ कर कोरे शब्दों पर ही से व्यभिचार दोष उठा देना तुच्छता है। गम्भीरता का पाठ पढ़ने वालों को ऐसे तुच्छ कमीनेपन से अपने को बचाते रहना चाहिये यद्यपि यह कार्य कठिन है। किन्तु असम्भव नहीं । तुम्हारा मित्र ग्राम को जारहा है तुमने उससे कहा कि सम्भवत: मेह पड़ेगा, अतः छतरी लेते जाओ। वह मित्र मेह नहीं वरसने का आग्रह करता हुआ छतरी को नहीं लेगया, दैव योग से मार्ग में मेह वरसा और मित्र बेचारा वस्त्र तथा अन्य सामान के साथ भीग गया और लौट कर मित्रने सम्पूर्ण व्यवस्था सुनाई । मित्र की दशा को सुनकर तुम्हें इतनी गम्भीरता बनाई रखनी चाहिये जिससे कि झटिति यह शब्द नहीं निकल पड़े कि हमने तभी तुमसे कहा था कि छतरी लेते जाना। तात्पर्य यह है कि पक्ष के प्रयोग की सामर्थ्य से ग्रन्थकार का यही अभिप्राय जंचता है कि वे हेतु दल में " कालवर्तनाभिन्नत्वे सति" इतना विशेषण लगा रहे हैं।
नन्वत्र प्रमेयत्वादेवेत्यवधारणाचदप्रमाणत्वे सतीति विशेषणमनुक्तमपि शक्यमवगंतुमन्यत्र तु कथमिति चेत्, कार्यत्वादेवेत्यवधारणाश्रयणादन्यत्राप्यकारणत्वे सतीति विशेषणं तावद् गम्यते कारणं च युगपत्सकलवृत्तिमतां वृत्तौ कालवाचरित्यकालवृतित्वे सतीति विशेषणं लभ्यत एव सामर्थ्यात् ततो न प्रकृते हेतौ विशेषभिच्छता हेत्वंतरं ।
सन्तुष्ट नहीं हुये उस विद्वान् का पुनः प्रश्न है कि सभी वाक्यों में अवधारण लग जाते हैं। इस बात का जैन भी मानते हैं " पृथिव्यादयः स्वतो अर्थान्तरभूत-ज्ञान-वेद्याः प्रमेयत्वात् " इस अनुमान में प्रमेयत्वात् एव" इस प्रकार अवधारण कर देने से प्रमाण भिन्नत्वे सति यह विशेषण विना कहे भी जाना जा सकता है किन्तु अन्य स्थल पर यानी “ वर्तना वहिरंगकारणापेक्षा कार्यत्वात् इस अनुमान में वह " कालवर्तनाभिन्नत्वे सति " यह विशेषण भला किसप्रकार जाना जा सकता है।
अर्थात्-प्रमेयपना ही जहाँ है वह अपने से अर्थान्तर होरहे ज्ञान के द्वारा वेद्यपना है यद्यपि ज्ञान प्रमेय है तथा साथमें प्रमाण भी है अतः केवल प्रमेय ही तो ज्ञान भिन्न पदार्थ पृथिवी, जल आदिक ही होसकते हैं। अतः “प्रमाणभिन्नत्वे सति" यह विशेष ण विना कहे ही निकल पड़ता है, किन्तु आप जैनों के अनुमान में कालवतना भिन्नत्वे सति यह विना कहे यों ही नहीं टपक पड़ेगा । यो प्राक्षेप करने पर तो ग्रन्थकार समाधान करते हैं, कि यहां भी कार्यत्वादेव इस प्रकार एव द्वारा अवधारणका प्राश्रय लेने से हमारे दूसरे अनुमान में भी " अकारणत्वे सति ", यह विशेषण तो विना कहे ही जान लिया