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________________ पंचम-अध्याय १५५ यहाँ "उपकारः" इस शब्द की अनुवृत्ति कर ली जाती है तिस कारण जीवों के परिदृश्यमान उपकारों करके परस्पर में अनग्रह करने वाले जीवों का अनुमान होजाता है, इसी बात को ग्रन्थकार अगली वार्तिक द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं। जीवानामुपकारः स्यात्परस्परमुपग्रहः । संतानान्तरवदाजां व्यापारादिरतोनुमा ॥१॥ परस्पर में एक दूसरे का अनुग्रह करना जीवों का उपकार होसकता है, अन्य सन्तानों के समान उस उपकार करके जीवोंका अनुमान होजाता है, सन्तानान्तरको धारनेवाले जीवों के व्यापार आलिंगन, शिक्षा आदिक हैं इनसे उन सन्तानान्तरों का अनुमान होजाता है। भावार्थ-अल्पज्ञ जीवों को दूसरों की प्रात्माओं का प्रत्यक्ष होता नहीं है, व्यापार करना, वचन बोलना, आदि करके अन्य सन्तानों का अनूमान कर लिया जाता है, इसी प्रकार परस्पर के उपग्रह स्वरूप उपकार करके अनुग्राहक जीवों का अनुमान कर लिया जाता है। संनानांतग्माजो हि जीवाः परस्परमसंविदान्मानः कार्यतोनुमेयाः म्युन पुनरैक्यभाजः । तच्च कार्य परस्परमुपग्रहः । स च व्यापारादिरालिंगनादिवाहनादिभिर्व्यापारः। अनुनयनं हितप्रति-" पादनादिाहारः। स च परस्परमुपलभ्यमानः संतानांतरत्वं साधयतीति तदनुमेयाः संतानांतरपाजो जीवाः । सन्तानान्तरोंको धारने वाले जीव जब कि परस्पर में असंविदित स्वरूप हैं यानी अपनी आत्मा का तो स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होसकता है दूसरोंकी प्रात्मानों का स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष नहीं होपाता है तथा वे सन्तानान्तर-वर्ती जीव अव्यभिचारी कार्य हेतुओं से अनुमान करने योग्य होसकते हैं किन्तु फिर वे सन्तानान्तरवर्ती जीव ब्रह्माद्व तवादियों के विमर्षण अनुसार एकता को धारने वाले तो नहीं हैं वह अनेक सन्तानवर्ती जीवों का कार्य तो परस्पर में एक दूसरे का अनुग्रह करना है और वह अनग्रह तो व्यापार करना,विनय करना,लेन देन करना बांइना बांटना,आदि हैं, आलिंगन करना, प्रेमालाप, गुह्य आख्यान आदि और वाहन (घोड़ा सवार को लाद लेजाता है और सवार घोड़े को पौष्टिक भोजन, मदन, टहलना,खुजाना,ग्रादि करके प्रसन्न रखता है। अध्यापन अादि क्रियाओं करके व्यापार करना वह अनुग्रह है और अनुनय करना तो हित मार्गका प्रतिपादन,सुन्दर पाख्यान आदिक वचन बोलना है और वह जीवों के परस्परमें देखा जारहा अनुग्रह तो अन्य सन्तानोंकी सिद्धि करा देता है, इस कारण सन्तानान्तरों को धारनेवाले अनेक जीव उस परस्परोपग्रह करके अनुमान कर लेने योग्य हैं। पूर्व सूत्रों के विवरण में भी इसीढंग से धर्म आदि चार द्रव्यों का अनुमान कर लेना कहा जा चुका है। परस्परं संवृत्या संतानान्तरव्यवहार इत्ययक्त पुरूषा तवादस्य पूर्वमेव निरस्तस्वासंवेदनाद्व तवादवत् । यहाँ कोई अद्वैतवादी आक्षेप करता है कि संसार में एक ही परब्रह्म है परस्पर में न्यारी न्यारी सन्तानों के होरहे व्यवहार तो झूठी कल्पनाओं से गढ़ लिये गये हैं जैसे कि शरीर में एक अखण्ड प्रास्मा के भी खण्ड मान लिये जाते हैं, मेरे सिर में पीडा है, पांव में सुख है आदि । ग्रन्थकार कहते हैं कि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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